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________________ प्रेरणापूर्वक कुछ कराने से कतराते हैं, संकोच करते हैं । सत्कर्म की शुभ भावना को अपने से आगे बढ़कर दूसरे व्यक्तियों में भी अधिकाधिक तीव्रगति से प्रवाहित करते समय कभी-कभी संकोच के रूप में प्रस्फुटित होने वाला जो व्यक्ति का क्षुद्र अहंकार बाधक बनता है, उसे साहस के साथ तोड़ डालना चाहिए । प्रमोद भावना शुभभावना का विस्तार इसी प्रकार दूसरों के द्वारा किए जा रहे सत्कर्मों की अनुमोदना एवं प्रशंसा भी शुभभावना का विस्तार है । यह श्री उमास्वाति एवं श्री हरिभद्र आदि आचार्यों की भाषा में प्रमोद भावना है । सत्कर्म कहीं भी और किसी के भी द्वारा हो रहा हो, बिना किसी जाति, देश, पंथ एवं परम्परा आदि से सम्बन्धित पक्षपात के, उसका मुक्तमन एवं मुक्तकण्ठ से अनुमोदन करना, अपने आप में, एक विशिष्ट पुण्य कर्म है | बहुत से लोग सुकृतानुमोदन की उक्त पवित्र साधना में अतीव दुर्बल होते हैं | सत्कर्मों की प्रशंसा करते समय उनकी जिह्वा को लकवा मार जाता है | क्या मजाल, किसी की प्रशंसा में उनके मुँह से कोई एक शब्द भी निकल जाए । साधारण से साधारण भूलों को भी तूल देकर दूसरों की निन्दा करने में वे घंटों गुजार देंगे, किन्तु किसी के अच्छे से अच्छे अभिनंदनीय गुणों की प्रशंसा के लिए दो चार मिनट भी उनके पास नहीं होते । इसका अर्थ है कि उनका क्षुद्र मन अहंकार से ग्रस्त है; वे हीनभावना से पीड़ित व्यक्ति हैं | किन्तु उन्हें पता होना चाहिए कि इस प्रकार सत्कर्म के अनुमोदन का प्रसंग मिलने पर अनुमोदन न करना भी एक पाप है । अस्तु, महान हैं वे व्यक्ति, जो उक्त पाप से बचते हैं और यथा प्रसंग सुकृतानुमोदन के द्वारा शुभ भावना को विस्तार देकर असीम पुण्य का अर्जन करते हैं । तत्काल लाभ उठाइए अहिंसा, सत्य, दया, क्षमा, सेवा, उपकार आदि के रूप में जब भी और जो भी कोई प्रसंग मिले, भले ही वह कितना ही अल्प एवं नगण्य क्यों न हो, उसका तत्काल लाभ उठाना चाहिए | समय बीत जाने पर बाद में केवल पछताना ही शेष रहता है, और कुछ नहीं | सत्कर्म को क्या छोटा, क्या बड़ा ? मूल में तो वह एक भाव है | बाहर में उसे मूर्तरूप जब भी मिल सके, दीजिए, चूकिए नहीं । यदि संयोगवश अभी समय साथ नहीं दे रहा है, तो उसके लिए (६२) Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001306
Book TitleChintan ke Zarokhese Part 1
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAmarmuni
PublisherTansukhrai Daga Veerayatan
Publication Year1988
Total Pages277
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Discourse
File Size13 MB
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