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आध्यात्मिक धार्मिक एवं सामाजिक उन्नति प्राप्त की है, उसे स्पष्ट रूप से समझे बिना तथा उसका पुनर्मूल्यांकन किये बिना कोई गति नहीं है । आज के बदलते हुए परिप्रेक्ष्य में नूतन संस्कृति का निर्माण और पुरातन मान्यताओं का संशोधन किए बिना कथमपि चारा नहीं चलेगा ।
नवीन एवं पुरातन का संगम
गंगा का प्रवाह बहता चला आ रहा है, बहता चला आ रहा है । उसमें जहाँ तहाँ स्थान-स्थान पर नये-नये नदी-नद और नाले आ-आकर मिलते रहते हैं तो गंगा का प्रवाह विराट और विशाल रूप में प्रवहमान रहता है, उसकी पावनता उसी प्रकार बनी रहती है । अन्यथा नये नदी, नद और नालों के मिलन के अभाव में स्वयं गंगा का प्रवाह भी स्वल्प सा शून्य सा होकर सूख सकता है और रेगिस्तान के रूप में बूँद-बूँद सूख सकता है ।
इसी प्रकार वृक्ष का मूल तना और प्रमुख - प्रमुख शाखाएँ यथावत् रहने पर भी उसके पत्र, पुष्प और फल ऋतु के अनुसार बदलते रहते हैं । पुराने झड़ते रहते हैं और नये आते रहते हैं । नवीन और पुरातन के इसी संगम से वृक्ष की शोभा है । इस परिवर्तन प्रक्रिया के अभाव में वृक्ष स्वयं सूखकर मात्र ठूंठ बन कर रह जाता है ।
कुण्ठाग्रस्त युवा पीढ़ी
लेकिन आज की युवा पीढ़ी तो कुण्ठाग्रस्त है, क्षुब्ध है और उसका आक्रोश सब कुछ विनाश एवं विध्वंस करने पर उतारू है । इसी का कुपरिणाम है कि आज की युवा पीढ़ी की अधिकांश शक्ति रचनात्मक कार्यों की अपेक्षा तोड़-फोड़ और विध्वंसात्मक कार्यों में अधिक व्यक्त हो रही है । इसीलिये परम आवश्यकता है आज की युवा पीढ़ी को उचित निर्देश एवं दिशा बोध देने की, उसे उचित कार्यों एवं युग परिवर्तन में लगाने की । यदि ऐसा हो सका तब तो समाज, राष्ट्र और विश्व का कल्याण, उत्थान और पुनर्निर्माण हो सकेगा । अन्यथा सब कुछ अन्ध रसातल में चला जायेगा । इसीलिये देश के पुनर्निर्माण और देश की प्रगति में आज की युवा पीढ़ी को एक महत्त्वपूर्ण भूमिका अदा करनी है ।
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