________________
चिन्ता है केवल कुम्हार, लुहार, किसान आदि कर्म-करों के कृषि आदि कर्मों से सम्बन्धित औद्योगिक स्थूलहिंसा की, जिसकी भगवान महावीर के द्वारा गृहस्थ के लिए कोई शास्त्रीय वर्जना नहीं है | यह चिन्तन की बौद्धिक दुर्बलता है, जिसने समाज के अल्पसंख्यक वर्ग को सीधे जनहितमूलक उत्पादन क्षेत्र से हटा कर उत्पादक और उपभोक्ता के बीच का एक दलाल मात्र बना दिया है, जिसे आज के युग की चेतना बीच में से निकाल फेंकने की बात सोच रही है | समय आ गया है, अपने जीवनदर्शन पर नए सिरे से पुनर्विचार करने का | भगवान ऋषभदेव के कर्मदर्शन की पुन: प्रतिष्ठा करनी होगी । अकर्म में नहीं, कर्म में धर्म के दर्शन करने होंगे । कर्म को वैयक्तिक स्वार्थ की चेतना से निकाल कर व्यापक सामाजिक चेतना देनी होगी । आज के अधिकांश धार्मिक और शिक्षित कहे जाने वाले लोग श्रम से सम्बन्धित कृषि एवं उद्योग-धन्धों को घृणा की दृष्टि से देखते हैं | उन्हें बस ठाली बैठे किया जाने वाला कोई व्यापार-धन्धा चाहिए या नौकरी चाहिए । काम कम, लाभ भरपूर। न पैंट की कहीं क्रीज खराब हो, न कहीं कोई धूल या कालिख लगे । सेठ को दुग्धधवल गद्दी चाहिए, और अफसर को चमचमाती कुर्सी | काम कोई और करे, पसीना कोई और बहाए, किन्तु खजाना उनका भरे । पाप कोई करे और उसके फलोपभोग से धर्म इन्हें मिल जाए। याद रखिए, न कोई काम छोटा है, न बड़ा है । छोटा बड़ा होता है मानव का मन | अच्छा बुरा काम बाहर में नहीं, आपके अन्तर्मन के उद्देश्य में है, भावना में है। आपको ऐसा धार्मिक होना चाहिए कि आप पवित्र एवं जनहित के संकल्प से जिस कर्म को भी छू लें, वह धर्म बन जाए । 'पुनातीति पुण्यं' की व्युत्पत्ति वाला वह पुण्य, जो कर्ता के अन्दर और बाहर सब ओर पवित्रता की निर्मल धारा बहा दे ।
मार्च १९७५
(३६)
Jain Education International
For Private & Personal Use Only
www.jainelibrary.org