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से युद्ध करो, उन्हें हर कीमत पर पराजित करो और आगे बढ़ कर दूर-दूर तक अपने विजयध्वज लहराओ । मानव की कर्मशक्ति एक तूफान है। कौन नतमस्तक नहीं हो जाता ?
तूफान के आगे
मानव गर्जती-उछलती शक्तियों का अनन्त सागर है। आवश्यकता है, उन शक्तियों को संगठित एवं केन्द्रित करने की । केन्द्रित न होने के कारण ही वे शक्तियाँ पंगु बनी हुई हैं। उनसे कुछ हो नहीं पाता है । और इस पर से मानव समझ लेता है कि “मेरे भाग्य में कुछ नहीं है। मैं रिक्तघट हूँ, जल की एक बूँद भी तो यहाँ नहीं है। रिक्तघट तो भरा जा सकता है। पर, मैं तो फूटा घड़ा हूँ, भर कैसे सकूंगा ?" यह विचार एकदम तोड़ देते हैं आदमी को । पर, किसने कहा तुम्हें कि तुम रिक्त घट हो, या फूटे घट हो ? महावीर ने तो कहा है-तुम अनन्तशक्ति के स्रोत हो। जो मुझमें है वह तुममें भी है। कोई भी व्यक्ति ईश्वरीय अनन्त ज्योति से खाली नहीं है। अपेक्षा है, सोई हुई शक्तियों को जागृत करने की। जिसकी शक्तियाँ जाग जाती हैं, उसके लिए कुछ भी अलभ्य नहीं है, असंभव नहीं है।
अधूरे मन से किया गया प्रारम्भ हमेशा आदमी को अधूरा रखता है । पूर्णता के लिए पूर्ण मन चाहिए । यह पूर्ण मन ही वह निष्ठा है, जो कर्म को प्राणवान बना देती है । पूरी निष्ठा के साथ कर्मयात्रा करो । कर्म के प्रति सच्चा रहना ही कर्म की सफलता का मूलमंत्र है । और कहीं आप ईमानदार हैं। या नहीं, जाने दो इस सवाल को । कम से कम इतना तो प्रमाणित करो कि तुम अपने कर्म के प्रति तो ईमानदार हो । इस एक ईमानदारी में विश्व - ब्रह्माण्ड की एक-एक करके सभी ईमानदारियाँ अपने आप समाहित हो जाती हैं । कर्म की सफलता के लिए कर्मशक्ति अपेक्षित हैं, और यह कर्मशक्ति आती है कर्म की सत्यता से, अर्थात्, कर्म के प्रति पूर्ण निष्ठा एवं ईमानदारी से । यही वह निष्ठा है जहाँ मानव का मन तदनुरूप वाणी का, और वाणी तदनुरूप कर्म का रूप लेती है भगवान महावीर के साथ इसी सन्दर्भ में हुए एक प्रश्नोत्तर की चर्चा उत्तराध्ययन सूत्र ( २९, ५३ ) में मिलती है :
"करणसच्चेणं भंते ! जीवे किं जणयइ ?
"करणसच्चेणं करणसत्तिं जणयइ ।
करणसच्चे वट्टमाणे जीवे जहावाई तहाकारी यावि भवइ ।”
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