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अंधविश्वासों की सघन अंध रात्रि क्यों ?
मानव ने अपनी जीवन यात्रा के इतिहास में जहाँ अनेक सुविचारित, महत्त्वपूर्ण, जीवनोपयोगी, स्व-पर हितकर सैद्धान्तिक धारणाओं एवं स्थापनाओं का सृजन किया है, वहाँ भ्रान्त धारणाओं के अन्ध-विश्वासी अँधेरे में अनेक अर्थहीन मान्यताओं की कल्पनाएँ भी की हैं । जातियों के नाम पर, पारिवारिक तथा सामाजिक धारणाओं के आधार पर ऐसी अनेक मान्यताएँ प्रचलित हो गई हैं, जो मानव की प्रगति के पथ में कदम-कदम पर अवरोधक चट्टानें बनकर खड़ी हो गई हैं । मकड़ी, जैसे अपने ही द्वारा बुन गए जाल में उलझ जाती है, त्रास पाती है, ऐसी ही स्थिति मानवजाति की अपने ही द्वारा बुनी हुई मान्यताओं के जाल में हो गई है । जिधर भी नजर डालिए, मान्यताओं का एक सघन दुर्गम जंगल खड़ा हो गया है, और भद्र मानव उसमें भटकता, ठोकरें खाता आ रहा है हजारों वर्षों से। महापुरुषों द्वारा समय-समय पर मान्यताओं से मानव की मुक्ति के लिए इतने प्रयत्न किए जा चुके हैं, फिर भी स्थिति प्रायः ज्यों-की-त्यों है । कुछ खास फर्क पड़ा नहीं है । अपितु कुछ मान्यताओं ने तो धर्म और सिद्धान्त का ऐसा रूप ले लिया है कि वह छोड़े से भी छूटती नहीं हैं । उनका छुड़ाना या छूटना अधर्म समझा जाने लगा है । परंपरागत मान्यताओं में जहाँ कहीं थोड़ा सा भी हेर-फेर होता है, तो समाज में प्रलयकाल जैसा तूफान उठ खड़ा होता है ।
जातीय या सामाजिक मान्यताओं की बात एक ओर छोड़िए मैं यहाँ धार्मिक मान्यताओं की ही चर्चा कर रहा हूँ । ईश्वर, खुदा और अन्य देवताओं की प्रसन्नता के लिए निरीह मूक पशुओं का वध आखिर है क्या ? मान्यता ही तो है, जो अमुक भय या प्रलोभन के क्षणों में कल्पित कर ली गई है । महादेव शिव, जो शिवत्व का, मंगल-कल्याण का पौराणिक देव है, नेपाल में उसकी मूर्ति के समक्ष हजारों बकरे और भैंसे निर्दयता के साथ मौत के घाट उतार दिए जाते हैं। जगदम्बा जगद्धात्री कही जानेवाली दुर्गा या काली आदि देवियों के समक्ष पूजा के नाम पर जो प्रतिदिन बकरों की, मुर्गों की हत्याएँ हो रही हैं, वह भी एक
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