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लगा है, अन्दर ही अन्दर । जरा समय आने दीजिए । विस्फोट होने में कुछ ही देर है ।
बस,
पाद-विहार से धर्म-प्रचार होता है, या हुआ है, आपकी यह बात परख पर ठीक नहीं उतर पा रही है । क्या प्रचार हुआ है ? जैन-धर्म का जन संख्या की दृष्टि से निरन्तर ड्रास ही होता आ रहा है । इसका एक कारण है, ठीक तरह जनसंपर्क ही नहीं हो पाता है, इन तथाकथित विहारों से । सुदूर गान्धार और ब्रह्मदेशवर्मा आदि से सिमटते - सिमटते जैन धर्म भारत के बीच के कुछ प्रदेशों में ही सीमित हो गया है । क्यों ? क्योंकि अनजान दुर्गम प्रदेशों की लम्बी पद-यात्राएँ भिक्षु - भिक्षुणी सहन नहीं कर पाए । गाँवों की सर्व साधारण जनता में भिक्षु क्यों न रह सके ? इसलिए कि वहाँ का साधारण रहन-सहन एवं खान-पान रास नहीं आया उन पुराने आपके उग्र क्रिया-काण्डी, साथ ही सुविधा भोगी साधु-साध्वियों को भी । व्यापारी संपन्न वर्ग है । अच्छे रहन-सहन और खान-पान की सुविधा के लोभ में, आज के ही नहीं, आपके पुराने महारथी भी सिमटते - सिमटते पहुँच गए सर्वसाधारण जनता को छोड़कर सेठों के रंग महलों में। पाद-विहार के कुछ कष्ट ही थे ऐसे, जिनसे कि जैन साधु सर्व-साधारण जनता में अपने पैर न जमा सका, न बढ़ा सका । अपनी ही बात कहता हूँ, सन १९६२-६३ में मैं उड़ीसा, बंग, उत्तरी बिहार और पूर्वी उत्तरप्रदेशों के सैकड़ों गाँवों में घूमा हूँ । सैकड़ों ही लोगों से मद्य-मांस का त्याग कराया है, उनको नमस्कार मंत्र, जैनत्व का बोध दिया है, पर अब क्या है वहाँ ? मुझे कुछ पता नहीं । दुबारा कहाँ छू सका हूँ उन क्षेत्रों को । दूसरा भी कोई साधु वहाँ नहीं पहुँच पाया । पाद - विहारी साधु सुदूर प्रदेशों को बार-बार स्पर्श भी कैसे कर सकता है । भारत के एक कोने से दूसरे कोने तक एकबार आनेजाने में ही जीवन का अधिकांश काल समाप्त हो जाता है। बताइए, क्या धर्म-प्रचार होता है इस तरह, जिसकी आप और आपके साथी वकालत करते हैं ?
विदेशों में हमारा प्रचार क्यों न हुआ ? क्योंकि हमारा आचार दूसरों से बहुत उत्कृष्ट था । यह कोरी अहंलिप्त लप्फाजी के सिवा क्या है ? यों कहिए कि पाद - विहार के कारण प्रतिदिन यात्रा में आनेवाले कष्टों को सहन करने की क्षमता नहीं थी, उन भिक्षुओं में भी । बहाना कुछ भी बनाएँ, उससे यथार्थ का अपलाप नहीं हो सकता । विदेश तो दूर, भारत के ही अनेक सीमावर्ती भाग हमसे अस्पृष्ट रहते आए हैं चिर अतीत से । ऐसा क्यों ? क्या यहाँ भी आचार की उत्कृष्टता बाधक रही है जहाँ जैन-धर्म का एक समय विशाल साम्राज्य (२३६)
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