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मारने के नहीं । इसलिए यह बाहर में हिंसा होते हुए भी अन्दर में अहिंसा और तज्जन्य शुभाश्रव है तथा अशुभ की निर्जरा का क्षेत्र है ।
एक व्यक्ति प्यास से मर रहा है | दो बूंट पानी न मिले तो मर ही जाए । इसी समय करुणा से द्रवित कोई व्यक्ति उसे एक गिलास पानी पिला देता है । फलस्वरूप वह बच जाता है । पानी की नन्ही-सी फुहार तक में असंख्य जलीय जीव होते हैं, अनन्त निगोद के भी प्राणी हैं । जलाश्रित दृष्टिगोचर न होने वाले अनेक कीटाणु रूप त्रस जीव भी होते हैं | इतने जीवों की हिंसा होने पर भी इस अशुभ में शुभत्व कहाँ से आता है, हिंसारूप पाप क्रिया में भी पुण्य कैसे हो गया ? इसलिए हो गया कि पानी पिलाने का भाव जलीय तथा अन्य जीवों को मारने का नहीं, अपितु प्यासे को अनुकम्पा भाव से बचाने का है । पुण्य-पाप की सृष्टि व्यक्ति के शुभाशुभ भावों की नींव पर निर्मित होती
एक व्यक्ति क्रोध में है, वैर-विरोध के तीव्र दुर्भावों में है । अपने विरोधी को मार तो नहीं रहा है, किन्तु मुख से अनर्गल बोल, बोल रहा है । कह रहा है, मैं तुझे कच्चे को खा जाऊँगा, तेरी टांग तोड़ दूंगा, तेरी जीभ खींच लूँगा । यह सब क्या है ? बाहर में प्राण-वधरूप हिंसा न होते हुए भी मन और वाणी की क्रूरता से हिंसा ही है । हर प्रमत्त योग हिंसा है । प्राण-व्यपरोपण मात्र हिंसा नहीं है । प्रमत्त योग की स्थिति में किया गया प्राण-व्यपरोपण हिंसा है । प्राण-व्यपरोपण प्राण-हरण भले ही परिस्थिति विशेष से न भी हो, यदि अकेला प्रमत्त-योग है, क्रोध आदि का वैर-विद्वेषात्मक भाव है, तो वह हिंसा की कोटि में आ जाता है । अतएव आचार्य उमास्वाति ने तत्वार्थ सूत्र में हिंसा की अतीव सटीक व्याख्या करते हुए एक सूत्र उपन्यस्त किया है - " प्रमत्तयोगात् प्राणव्यपरोपणं हिंसा ।” प्रमत्त योग से किया गया प्राण-वध ही हिंसा है |
इससे स्पष्ट हो जाता है कि हिंसा और अहिंसा में सिर्फ प्राणियों के प्राणों का नाश होना या प्राणों का नाश न होना मुख्य नहीं है, मुख्य है प्रमत्त और अप्रमत्त-भाव | विवेक के प्रकाश में यतना पूर्वक किया गया कार्य अहिंसा है और अविवेक एवं अयतना से लिया गया कार्य हिंसा है ।
लेख विस्तृत होता जा रहा है, इधर समय कम है । अत: विराम दे रहा हूँ लेख को | यों तो ज्ञातव्य एवं मीमांसा योग्य बहुत-कुछ है । चिन्तन की
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