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भोजन के माधुर्य का स्वाद अनुभूति में आता है । और, यदि आपका मन भोजन करते समय अन्य किसी चिन्तन में लग गया है, तो आप भोजन करते हुए भी भोजन के अभीष्ट स्वाद का अनुभव ही नहीं कर पाते । यदि आप यथार्थ
सचमुच ही पदार्थ के कर्ता और भोक्ता होते तो, भोजन काल के हर क्षण में आपको भोजन के स्वाद का पता लगना चाहिए था । पता लग नहीं रहा है, अत: स्पष्ट है कि व्यक्ति का कर्तृत्व एवं भोक्तृत्व बाहर में नहीं, अन्दर में है । यही बात स्वप्नजगत् पर से भी प्रमाणित होती है । स्वप्न में जड़ या चेतन जैसे कोई पदार्थ या व्यक्ति उपस्थित नहीं होते । वहाँ समग्र सृष्टि भाव की होती है । उसी भाव- सृष्टि से सुख-दु:ख आदि का भोग होता रहता है । स्वप्न का कर्तृत्व एवं भोक्तृत्व स्वप्न-द्रष्टा व्यक्ति की भाव- धारा में ही सन्निहित है । पाप, पुण्य, बन्ध, मोक्ष भी भावना के ही रूप हैं । महाप्रभु भगवान महावीर का आचारांग सूत्र में इसी सन्दर्भ में एक बोध वचन है अज्झत्थेव बन्धप्पमोखो ।” व्यक्ति का बन्ध और मोक्ष व्यक्ति के अन्दर में ही है, बाहर में नहीं । इसी भाव को एक अन्य विचार सूत्र में यों अंकित किया गया हैपरिणामे बन्ध:, परिणामे मोक्षः ।” व्यक्ति के अपने स्वयं के आन्तरिक परिणाम में अर्थात् भाव में ही बन्ध और मोक्ष है इसीलिए धार्मिक परम्पराओं में चित्त-शुद्धि पर सर्वाधिक बल दिया गया है । वैदिक परम्परा के अध्यात्मवादी ऋषि का यह बोध सूत्र भी भाव - पक्ष की महत्ता को ही प्रमाणित करता है मनएव मनुष्याणां कारणं बन्धमोक्षयोः ।" मन ही मनुष्य के बन्ध और मोक्ष का हेतु है । बौद्ध दर्शन तो भाव - पक्ष पर बल देनेवाला एक महान सर्वविदित दर्शन है ही । भगवान बुद्ध का
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'धम्मपद' में वचन है
भी शुभ या अशुभ धर्म अतः मन ही मुख्य है के तत्त्व द्रष्टा ऋषियों ने मनुष्य शब्द का निर्वचन ही मन के आधार पर किया है
मनो पुव्वंगमा धम्मा, भनोसेट्ठा मनोमया” जितने अर्थात् कर्म हैं, वे सर्व प्रथम मन में ही जन्म लेते हैं, व्यक्ति का अच्छा-बुरा सब कुछ मनोमय है । भारत
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मननात् मनुष्यः । " अर्थात् जो मन से मनन, चिन्तन करता है, वह मनुष्य है । जैन दर्शन में चेतना की अशुभ, शुभ और शुद्ध नामक तीन ही स्थितियाँ हैं और वे उपयोग हैं, अर्थात् भाव हैं । इसीलिए उन्हें अशुभोपयोग, शुभोपयोग और शुद्धोपयोग की सार्थक संज्ञा से अभिहित किया गया है । हिंसा, असत्य, चौर्य आदि तथा क्रोध, मान आदि वृत्तियाँ अशुभोपयोग हैं, पापाश्रव हैं । इसके विपरीत दान, दया, सेवा, परोपकार आदि की सूक्ष्म रागात्मक वृत्तियाँ शुभोपयोग हैं, पुण्याश्रव हैं । और इन दोनों से भिन्न राग-द्वेष-मुक्त, सर्वथा वीतराग भावरूप शुद्ध-चेतना, शुद्धोपयोग है । किंबहुना, सारा खेल मन का है, भाव का
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