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________________ अनेक मत-मतान्तर अहिंसा की मीमांसा में से ही पल्लवित हुए हैं। अनेक मत भूतकाल में उद्भूत हुए और महाकाल में विलीन हो गए। उनमें से कुछ बचे हुए आज भी विद्यमान हैं और वे अहिंसा के प्रश्न पर किस प्रकार परस्पर कलहायमान हैं, यह सर्वसाधारण जनता की आँखों के सामने है । जीवन की अनेक वृत्तियाँ हैं, तदनुसार अनेक प्रवृत्तियाँ हैं । एक पक्ष जिस प्रवृत्ति में अहिंसा देवी के दर्शन करता है, दूसरा पक्ष उसी में हिंसा की क्रूर राक्षसी को देखता है । एक पक्ष जिसमें हिंसा का नग्न रूप देखता है, उसी में दूसरा अहिंसा के दिव्य रूप का अवलोकन करता है । विचित्र स्थिति है लोकजीवन की और धर्म-जीवन की भी । धार्मिक क्रिया-काण्ड भी इस विवाद से अस्पृष्ट नहीं हैं । एक पक्ष अहिंसा के परिप्रेक्ष्य में जिस क्रिया-काण्ड को, उपासना को या साधना को धर्म मानता है, उपादेय मानता है, दूसरा पक्ष उसे ही हिंसा के परिप्रेक्ष्य में अधर्म एवं अनाचरण मानकर सर्वथा हेय अर्थात् त्याज्य मानता है । साधारण जन ही नहीं, उच्चकोटि के विद्वान के रूप में सुप्रसिद्ध मनीषी भी अहिंसा और हिंसा की परस्पर विरोधी मान्यताओं के चक्रव्यूह में अभिमन्यु की भाँति घिरे हुए हैं । उन्हें यथार्थ की दिशा में तटस्थ भाव से बाहर निकलने का कोई द्वार नहीं मिल रहा है । उपर्युक्त रूप में हिंसा और अहिंसा का प्रश्न जो उलझ रहा है, उसका कारण है, द्रव्य और भाव की सही स्थिति को न समझना | हिंसा हो या अहिंसा, अपने मूल रूप में वह मन का, अन्तश्चेतना का एक भाव है | किसी को पीड़ा देने का या मार डालने का विचार, भाव हिंसा है और किसी को सुख पहुँचाने का या बचाने का भाव, भाव अहिंसा है । और, बाहर में व्यक्ति के द्वारा किसी प्राणी का उत्पीडन हो जाना या मर जाना अपने में द्रव्य हिना है और किसी का बच जाना एवं सुखी हो जाना द्रव्य अहिंसा है | द्रव्य और भाव दोनों में भाव की ही प्रधानता है । ज्ञानी हो या अज्ञानी, प्रत्येक प्राणी निश्चय नय की दृष्टि से मूलत: अपने भावों का ही कर्ता है, और अपने भावों का ही भोक्ता है | बाह्य पदार्थों का या परिस्थितियों का कर्ता और भोक्तापन व्यवहार है, निश्चय नहीं । एक छोटे-से उदाहरण के द्वारा उक्त स्थापना को सही रूप में इस प्रकार समझा जा सकता है । आप एक अति-मधुर फल या मिष्टान्न का भोजन कर रहे हैं । जब आपका मन भोजन के क्षणों में भोजन की वृत्ति में होता है, तो आपको (२३०) Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001306
Book TitleChintan ke Zarokhese Part 1
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAmarmuni
PublisherTansukhrai Daga Veerayatan
Publication Year1988
Total Pages277
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Discourse
File Size13 MB
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