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सिद्धगिरि वैभार का गरिमामय इतिहास
वर्तमान कालचक्र के चरम तीर्थंकर महाश्रमण महावीर, भारत की पुण्य भूमि पर विश्व के अनन्त ज्योतिर्मय आलोक रहे हैं, जिनके प्रकाश में लाखों-लाख नर-नारियों ने, अंधकार में भटकते व्यक्तियों से सही रास्ता पाया ! महाप्रभु महावीर अपने जीवन के अन्तिम तीस वर्ष तक निरन्तर ज्ञानामृत की वर्षा करते रहे । महाश्रमण महावीर की पीयूषवर्षी धर्म देशना के लिए आचार्यों ने कहा है . "प्रभु की यह अमृत वाणी प्रारंभ में भी मंगलमय है, मध्य में भी मंगलमय है और अन्त में भी मंगलमय है ।" वस्तुतः प्रभु की दिव्य वाणी का एक-एक शब्द जीवन के लिए मंगलमय है । और वह सिर्फ वर्तमान जीवन के लिए, इस लोक के लिए ही नहीं, परलोक के लिए भी मंगलमय है, आनन्दमय है।
भगवान महावीर अपने साधना काल में और केवल ज्ञान होने के पश्चात् अर्हन्त अवस्था में बार-बार मगध की राजधानी राजगृह में आते रहे हैं । राजगृह अंचल के पन्द्रह वर्षावास में से ग्यारह वर्षावास राजगृह के सांस्कृतिक एवं ऐतिहासिक सिद्ध पर्वत वैभारगिरि और उसकी उपत्यका में स्थित गुणशील उपवन के हैं, तीन नालन्दा के हैं और अन्तिम वर्षावास पावापुरी का है । यह वैभारगिरि पर्वत, जो आपके सामने विराट् रूप लिए खड़ा है, अपने में मंगलमय इतिहास की अनेक गौरवमयी गाथाओं को संजोये हुए है । इस पर्वत की विशाल उपत्यका में जिसमें आज आपका वीरायतन रूपायित हो रहा है, भगवान महावीर के समय में गुणशील उद्यान था । उसमें भगवान के अनेक समवसरण लगे हैं । इस पावन पर्वत के शिखरों पर एवं उसकी तलहटी में अभी तक महाप्रभु की वाणी का अमर ब्रह्मनाद गूँज रहा है । यह, वह दिव्य - नाद है, जिसे सुनने के लिए स्वर्ग से देवेन्द्र एवं देव - देवियाँ धरती पर उतर कर प्रभु चरणों में उपस्थित होते रहे हैं । पाताल लोक से धरणेन्द्र जैसे नागराज, चमरेन्द्र जेसे असुर आदि आते रहे हैं । धरती के अनेक सम्राट् और धनकुबेर श्रेष्ठी जनों से लेकर
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