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________________ .. और तो और, सत्य के पक्षधर धर्मपुत्र तक भी अपने विरोध पक्ष पर मनगढंत झूठे दोषारोपण करते रहते हैं, अनर्गल कीचड़ उछालते रहते हैं | चरित्र हनन का ऐसा कुचक्र चला है कि साधु नामधारी महान पुरुष भी इससे बचे नहीं हैं, अपितु उनमें तो यह रोग महामारी की तरह कुछ अधिक ही फैलता जा रहा है | क्रियाकाण्ड के नाम पर अधिकतर दम्भ का प्रदर्शन है-नीचे गारा ऊपर चूना है । और यह इसलिए है कि निन्दा-आलोचना के इस गन्दे व्यापार के माध्यम से अपनी क्षण जीवी प्रतिष्ठा का अन्ध श्रद्वालु भक्तजनों में मर्यादाहीन प्रसार किया जाए, तथा भिन्न सम्प्रदाय के साधुजनों को या अपने विरोधियों को बदनाम किया जाए । उन्हें पता नहीं, यह नकली साधुता, उग्र क्रिया-काण्डिता स्वर्ग का पथ नहीं, नरक का पथ है । स्वर्ग भी गए तो वे मायाचारी साधु, किल्विषक नामधारी नीच देव ही होंगे, शास्त्र प्रमाणत: । मैं लेख की ये पंक्तियाँ लिख रहा हूँ, दि. १२ जून ८२ की दुपहरी में और अभी ही दक्षिण प्रदेश मद्रास से श्री सुगन चन्दजी नाहर का एक दर्दभरा पत्र है कि "आजकल साधु सिर्फ वेष में ही दीखते हैं, साधु देखने की तमन्ना रह गई है ।" यह एक नाहरजी का ही दर्द नहीं, यह तो अनेक गुमसुम नाहरों का जिन भक्तों का दर्द है । क्यों है यह दर्द ? यह इसलिए है कि आजकल साधु धर्म का नहीं, सम्प्रदाय का प्रचार करता है । प्रेम, सद्भाव का नहीं, परस्पर में घृणा, दुर्भाव और फूट का प्रसार करता है। वह आग बुझाता नहीं है, अपितु हरेभरे मानव-मन के शान्त उपवन में आग लगाता है | अमृत के नाम पर विष-वृक्षों का बीजारोपण करता है । यह स्थिति केवल साधारण साधुओं की ही नहीं है, बड़े-बड़े नामधारी धर्माध्यक्ष तक इस मायाजाल से मुक्त नहीं हैं। वे साधारण जन की अपेक्षा अधिक ही साम्प्रदायिक मान्यताओं की कठपुतली बन गए हैं । सत्य को समझ कर और मानकर भी बाहर में मुक्तरूप से उसे स्वीकार कर लेने की उनमें क्षमता नहीं है। अनेक बार मान्यताओं के मोह से अन्दर में समझते हुए भी वे बाहर में सत्य को असत्य और असत्य को सत्य के रूप में प्रचारित करते हैं । धर्म-सम्मेलनों के अनेक प्रसंगों पर मुझे इस बात का अनेक बार कटु अनुभव हुआ है । क्या उन्हें पता नहीं कि यह गृहीत मिथ्यात्व का उन्मार्ग है 1 शास्त्र पढ़ते हैं, पता तो होगा ही | पर, 'दृष्टि रागो हि पापीयान्' इतना भयंकर है कि अच्छे-से-अच्छे विद्वान भी उसके समक्ष पराजित हो जाते हैं | (२०९) Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001306
Book TitleChintan ke Zarokhese Part 1
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAmarmuni
PublisherTansukhrai Daga Veerayatan
Publication Year1988
Total Pages277
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Discourse
File Size13 MB
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