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नैतिकता :
भारतवासी बात-बात पर अपनी नैतिकता के ऊँचे मानदण्डों की प्राय: जय घोषणाएँ करते रहते हैं । दूर के दूसरे राष्ट्रों को नैतिक दृष्टि से तुच्छ, क्षुद्र एवं नीच समझते हैं। समुद्र पार के अनेक राष्ट्रों में स्त्रियों से हाथ मिलाने की और परस्पर चुंबन आदि की कुछ खुली परम्पराएँ हैं। इसे हम घृणा से देखते हैं और कहते हैं- वे जंगली हैं, जानवर हैं। यह कैसी सभ्यता ? यह तो नारी क्या, वेश्याएँ हैं, वेश्याएँ । और हम नाक-भौंह सिकोड़ते हैं, और अपनी उच्च सभ्यता एवं नैतिकता के नगाड़े बजाने शरू कर देते हैं। मैं इन सब बातों के समर्थन में नहीं हूँ । परन्तु इतना अवश्य कहूँगा कि यह पापाचार उतना नहीं है, जितना कि वहाँ का लोकाचार है। माना कि यह सब है । पर दूसरी ओर यह भी तो देखिए कि नारी जाति का वहाँ समादर भी कितना उदात्त है । हर जगह नारी को पहले बैठाने का और काम करने का अधिकार है । 'लेडी इज फर्स्ट वहाँ का नारी के प्रति उदात्त व्यवहार सूत्र है । और भारत में क्या है ? नारी को पैरों का जूता कहा जाता है, जब चाहा फेंक दो, बदल दो । वह अतीत में काफी लम्बे समय से बाबा तुलसीदास के शब्दों में ढोल, गँवार, शूद्र और पशु के समान ताड़ना देने की पात्र है 'ढोल गंवार शूद्र पशु नारी, ये सब ताड़न के अधिकारी ।' और, आज तो हालत इतनी खराब है कि कुछ पूछो मत । नारी आज इतनी असुरक्षित है, कि दिल काँप जाता है । दहेज के नाम पर उसे मारापीटा जाता है, जलाया जाता है । कभी-कभी अत्याचारों से तंग आकर स्वयं उसे जलना पड़ता है । उसे विष खाकर आत्महत्या करनी पड़ती है । फाँसी के फन्दे पर झूलकर मरना होता है । और आश्चर्य तो तब होता है, जब ये घटनाएँ कीड़े-मकोड़ों और वनस्पति जीवों तक की रक्षा के लिए दया-धर्म का गगन भेदी उद्घोष करने वालों के घरों में घटित होती हैं ।
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काम-वासना का तूफान तो इधर प्रबल वेग से उमड़ पड़ा है । बलात्कार की बात एक साधारण-सी प्रासंगिक बात हो गई है, सामूहिक बलात्कार । मूच्छित अवस्था तक नारी के शरीर से दस-दस पंद्रह-पंद्रह नर-पिशाच चिपके रहते हैं । नारी बेचारी इस बीच मर भी जाती है । और अनेक बार तो वासना की पूर्ति के बाद नर- राक्षस स्वयं ही मार देते हैं । इन घटनाओं में अबोध बालिकाओं तक का शिकार किया जाता है । स्नेह-भरी माँ के बेटी के सामने माँ का, भाई के समक्ष
सामने बेटी का, और मासूम
(२०७)
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