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________________ " परस्पर दायित्व वाले सामाजिक संगठन का रूप दिया । 'श्रम करो और श्री पाओ का सन्देश दिया । कृषि का आदर्श उपस्थित करने वाला, कंद, मूल फलादि से अन्न पर लाने वाला यह आदि युगपुरुष था, महामानव था । य ऋषभदेव समय पर उचित निर्णय न लेते तो मानवजाति का धरती पर कोई अस्तित्व न रहता । एक-दूसरे को खाकर मानवजाति दानव बनती और अन्ततः धरती पर से अपना अस्तित्व समाप्त कर देती । असि का निर्माण आत्म-रक्षणार्थ श्री ऋषभदेव ने असि अर्थात् तलवार का निर्माण किया । हिंस्र पशुओं एवं दुष्ट दानवरूप मनुष्यों से अपनी और समाज की रक्षा के लिए वह आविष्कार आवश्यक था । यह ठीक है कि आगे चलकर विनाश के रूप में इसका भयंकर दुरुपयोग भी हुआ, अपने तुच्छ स्वार्थों के लिए नरसंहार हुआ, रक्षा के स्थान पर ध्वंसात्मक नग्न आक्रमण का रूप लेकर इसने अपना मूल आदर्श ही नष्ट कर दिया । कुछ भी हुआ हो, परन्तु समय पर उसकी एक उपयोगिता थी समाज के लिए, इससे इनकार नहीं किया जा सकता । यदि असि से भविष्य में होने वाले अनर्थों के विकल्पों में ही ऋषभ उलझे रहते, तो आज मानव जाति का क्या भविष्य होता ? गुण और दोष बगलगीर युगल बन्धु हैं । समय पर अपना अपन स्थान लेते रहते हैं । दृष्टं किमपि लोकेऽस्मिन न निर्दोष न निर्गुणम् ।' प्रश्न वर्तमान का है । कुछ दूर तक के भविष्य का है । यदि अमुक समय या अमुक भविष्य तक किसी निर्णय की या बात की अर्थवत्ता है, तो उसका उपयोग करना चाहिए | सुदूर भविष्य के विकल्पों में नहीं उलझना चाहिए। अब की बात देखो । तब की बात तब देखेंगे, आने वाली तत्कालीन पीढ़ी के लोग । जूँ पड़ जाने के भय से वस्त्र न पहनकर नंगे फिरना कहाँ की बुद्धिमत्ता है ? जूँ न पड़ने पाएँ, इसके लिए वस्त्र प्रक्षालनपर ध्यान रखों। भोजन करेंगे तो शौच करना पड़ेगा, यह तर्क कितना मूर्खतापूर्ण है ? हालत हो तो मल की शुद्धि कर लेना भाई। अरे, तब के मल की चिन्ता में आज तो भूखे न मरो । ऋषभदेव ने वर्तमान आत्मरक्षा के प्रश्न का हल असि में सोचा, और उस करुणामूर्ति ने सर्वप्रथम मानव के हाथों में आत्मरक्षा एवं समाजरक्षा के लिए यह असि थमा दी। Jain Education International 4 ( १९७) For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001306
Book TitleChintan ke Zarokhese Part 1
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAmarmuni
PublisherTansukhrai Daga Veerayatan
Publication Year1988
Total Pages277
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Discourse
File Size13 MB
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