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दुःख हो, यश हो या अपयश हो, जीवन हो या मरण हो, अच्छा हो या बुरा हो, साधक के लिए इससे कोई फर्क नहीं पड़ता । अच्छे के राग की और बुरे के द्वेष की आकुलता साधक को तंग नहीं करती । जो कुछ भी जीवन में घटित होता है, वह उसे अपना ही, सदा काल का अपना ही मान कर चलता है । वह अन्य किसी व्यक्ति पर या निमित्त पर बुरा होने का दोषारोपण नहीं करता । और न अपने द्वारा किसी का कुछ अच्छा किये जाने पर अपने प्रति श्रेष्ठता के अहं का राग ही करता है । वह सर्वत्र सम रहता है, अनाकुल और अनुद्वेलित ! अक्षुब्ध और अस्तब्ध ! यही वेदान्त की ब्राह्मी स्थिति है । यही जैन दर्शन की वीतराग स्थिति है । यही बौद्ध दर्शन की विपश्यना स्थिति है । द्रष्टा होना है, कर्ता नहीं । देखते जाओ, देखते जाओ ! जो हो रहा है, बस, उसे देखते जाओ । यदि कोई समयानुरूप अच्छे और बुरे का प्रतिकार और स्वीकार भी करना हो, इसके लिए कुछ करने जैसा भी हो तो कर सकते हो । किन्तु इसे भी तटस्थ द्रष्टा के रूप में देखते ही रहो, मजा लेते रहो, कि यह क्या हो रहा है । कर्म के साथ कर्तृत्व के अहं से लिप्त न बनो । प्राप्त कर्म के गहरे जल में रहकर भी कमल के समान निर्लिप्त रहो । यह मानसिक तनाव से मुक्त रहने की दार्शनिक प्रक्रिया है ।
कुछ लोग कहते हैं - इस तरह के सिद्धान्त से तो मनुष्य के कर्म करने की स्वतन्त्रता ही समाप्त हो जाती है । मैं कहता हूँ, इस सिद्धांत से स्वतन्त्रता मिलती है । यदि कोई बाहर का ईश्वर या अन्य कोई कर्ता माना जाता, तब तो व्यक्ति की स्वतन्त्रता का हनन होता । यहाँ तो दूसरे के कर्तृत्व से इन्कार है । स्वयं, स्वयं का कर्ता है इससे बढ़ कर और कौन-सी स्वतन्त्रता होगी । आप दूसरों के लिए भी कुछ अच्छा कर सकते हैं । पर, शर्त है- अपने को एक - निमित्त मानकर चलिए । कर्ता वह स्वयं है, और निमित्त आप हैं । बस, और कुछ नहीं हैं । तेरे मेरे का झगड़ा खत्म ! न साधक ! तुझ पर अच्छा करने की श्रेष्ठता के अहं का तनाव । और न सामने वाले पर तेरी श्रेष्ठता के अहं का दबाव ! एक तनाव से मुक्त ! दूसरा दबाव से मुक्त !
नियतिवाद के प्रति लोगों का एक तर्क है, कि जब सब कुछ होने जैसा होना ही है, तब हम क्यों सत्कर्म करें ? क्यों स्वाध्याय, ध्यान, जप, तप, दया, दान आदि करने की झंझट में पढ़ें । जो होना है, अपने आप समय पर हो जाएगा ।
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