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चलता रहा और वह हो गया धरती पर के अनन्तानन्त प्राणियों में एक विशिष्ट सर्वश्रेष्ठ प्राणी । कुछ अंशों में स्वर्ग के देवों से भी महत्तम । अत: वह देवताओं का भी प्रिय हो गया । 'देवाणुप्पिय- देवानुप्रिय! ' देवों का प्रिय ही नहीं, उनका पूज्य भी बन गया । कोटि-कोटि देव उसके धूलिधूसरित चरणों में प्रणत हो गए | अत: कुछ महातिमहान् लोकोत्तम महापुरुषों के प्रति भक्तिगीत मुखरित हो उठे- 'जो देवाण वि देवो, जं देवा पंजली नमस्तंति ।' वस्तुत: अन्तरंग आध्यात्मिक विकास की यात्रा में तो वह समग्र विश्व को बहुत पीछे छोड़ आया । क्यों कि आत्मा परमात्मा बन सकता है और यह आत्मा से परमात्मा बना मानव का अन्तरात्मा ।
प्रकृति की असंख्य घटनाएँ हर क्षण होती रहती हैं । पशु पक्षी का जगत् भी उन्हें देखता है । पर यह सब क्या है, क्यों है, किस लिए है, ऐसा कुछ भी अर्थबोध नहीं लगा पाता वह घटित घटनाओं का । देखा और रह गया जड़ की तरह । भय की कुछ स्थिति हुई तो डरकर भागा | खाने की चीज हुई तो खाने को लपका | प्रतिकार का भाव जगा तो किसी को मार दिया या मारने के चक्र में खुद मर गया । जंगल में रहा तो भागते दौड़ते, मरते-मारते मर गया । गाँव में रहा तो पिटते, मार खाते और भार ढौते-ढौते जीवनलीला समाप्त कर दी । न पुरानी पीढी से उसने स्वयं कुछ पाया, और न अपनी भावी पीढी को ही वह कुछ दे सका । कारण वही मनन का अभाव ! बाहर की आँखों से घटनाओं को देखता रहा, किन्तु अन्दर की आँख से घटना के आन्तरिक रहस्य को न देख सका । न प्रश्न खड़ा कर सका, न उत्तर पा सका ।
___ मैं यहाँ मानव की बात कर रहा हूँ, जो वस्तुत: मानव है, मनु का पुत्र है, चिन्तन मनन का बेटा है । जो तन से ही नहीं, मन से भी मानव है । मैं उनको मानव नहीं कहता, जो पशु जगत् के समान ही मनन से हीन हैं, विचार से शून्य हैं, विवेक से हीन हैं । ऐसे मानव तो पशुओं के समान ही घटनाओं को बाहर से देखते हैं, और देखकर निष्क्रिय खड़े-के-खड़े रह जाते हैं, तन से भी और मन से भी । न मन में कोई हलचल और न तन में । यदि कुछ हलचल होती भी है तो पशु जगत् की सीमारेखा के आस पास ही ।।
परन्तु जिन मानवों का मनन सक्रिय है, जिनके मन मस्तिष्क में घटनाओं को देखते ही प्रश्न खड़े हो जाते हैं और तत्काल उनका उत्तर पाने के
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