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मानव, खोल मन की आँख
मानव की तीन आँखों में से दो आँखें बाहर में हैं, और एक अन्दर में है, जिसे मन की अर्थात् मनन की आँख कहते हैं | बाहर की दो आँखें तो पशु, पक्षी, यहाँ तक कि मक्खी, मच्छर तक को भी होती हैं । पर, उनसे दिखता क्या है ? बस, यही एक आकृति, बस यही एक रंग रूप । कौन कितना लंबा है, चौड़ा है, कौन कितना गोल मटोल है या ठिगना है, बस, देख लिया एक आकार | कौन काला है, लाल है, हरा है या सफेद है, बस, देख लिया एक रंग, एक रूप । इससे आगे का चिन्तन नहीं है, कोई स्पष्ट इनके पास, जो जीवन को, जीवन के निर्माण को नया रूप दे सके । इसीलिए यह जगत् बहुत निचले स्तर पर, जैसा कि अनादि अतीत से चला आ रहा है, बस, वैसे ही आज भी चल रहा है | जो जंगली पशु जिस तरह घुरी या बिल बनाकर रहते आए हैं, उसी तरह आज भी रह रहे हैं | ‘जो पक्षी जैसा घोंसला लाखों वर्ष पहले बनाते थे, आज भी उनके द्वारा उसी तरह तिनके इकट्ठे किए जाते हैं, घोंसले बनाये जाते हैं। कोई सुधार नहीं, परिष्कार नहीं, कोई उद्धार नहीं । न उनका कोई भौतिक विकास हुआ है, न आध्यात्मिक | जहाँ के तहाँ पड़े हैं । क्यों पड़े हैं ? इसलिए पड़े हैं कि तीसरी आँख मन की, मनन की जो है, वह निरावरण नहीं है, साफ नहीं है, इनके पास | .
मानव इस सन्दर्भ में भाग्यशाली है । उसका मन विलक्षण है, दिव्य है। उसका मनन चमत्कारी है । पशुओं के समान ही उसे भी नीचे धरती और ऊपर आकाश मिला है, पर, उसने अपने जागृत मन से, अपनी सूक्ष्म मननशक्ति से धरती और आकाश के बीच एक नई सृष्टि का सृजन कर लिया है । वह भी कभी, जैसा कि जैन और वैदिक पुराण कहते हैं, पशुओं के ही समकक्ष था अविकसित या अल्पविकसित । उसके पास भी न गाँव था, न घर था, न व्यापार था, न उद्योग था, न धन वैभव था, न परिवार था । न समाज था । उसे न अपनी आत्मा का पता था न परमात्मा का | किन्तु मानव यथास्थितिवादी न था । उसका मनन चलता रहा, मनन के साथ श्रम का चक्र
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