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राजा और राजा से ऊपर महाराजा का उच्च आसन भी रिक्त नहीं था, तत्कालीन प्रजातंत्रों में । इतिहास महाराजा चेटक को हमारे सामने सर्वाधिकार प्राप्त महाराजा के रूप में ही उपस्थित करता है । स्वयं भगवान महावीर का जन्म भी ज्ञातृगणतंत्र के वैभवशाली एक सन्मान्य राजकुल में हुआ था । हम तो कहेंगे, प्रजातंत्र की अनेक अलोकतंत्रीय खामियों ने नित्य के होनेवाले उत्पीड़नों ने ही भगवान को तथा कथित प्रजातंत्री जननायकों तथा एकतंत्री निरंकुश राजाओं के विरुद्ध बोलने को विवश कर दिया था । यहाँ तक कि उन्होंने अपने भिक्षुओं को राजकीय अन्न तक भी ग्रहण करने का निषेध कर दिया था । उन्होंने केवल आनेवाले कठिन भविष्य की ओर तत्कालीन जननायकों का ध्यान ही आकृष्ट नहीं कराया, उन्हें सही रूप में जन प्रतिनिधि के योग्य कर्तव्य-पालक की चेतावनी भी दी । महावीर ने कहा था कोई कैसा ही महान क्यों न हो, महाआरंभ और महापरिग्रह नरक के द्वार हैं । ५ समग्रभाव से प्रजा के प्रति अनुकम्पाशील होना ही राजा का सही अर्थ में राजत्व है । यदि और कुछ उच्चतर पावन कर्म नहीं कर सकते हो, तो कम से कम साधारण आर्यकर्म तो करो । राजनीति के क्षेत्र में यह कितना महान उद्बोधन था ! कौन कह सकता है कि वैशाली जनतंत्र का विघटन भगवान महावीर के उक्त साम्यधर्म को यथाथरूप में ग्रहण न करने के कारण ही नहीं हुआ | यदि वैशाली के जननायक अपने को साम्य भूमि पर उतार पाते, बिखरे जनगण को समधर्मा रूप में अपनाने का साहस अपनाते तो वैशाली का जनमानस कभी विघटित नहीं होता । मगध की राजशक्ति वैशाली को चिरकाल में भी ध्वस्त नहीं कर पाती ।
इतिहास का वातायन एक-एक अन्वेषी हृदय के लिए खुला हुआ है - हम जितनी बार चाहें भगवान महावीर के जीवन पर दृष्टिपात कर सकते हैं ! हमें उनके जीवन एवं संदेशों से किसी भी वाद, किसी भी समस्या का समुचित समाधान आज भी प्राप्त हो सकता है ।
जाती है जिस ओर दृष्टि, बस उसी ओर आकर्षण, करता अग जग को अनुप्राणित जगनायक का जीवन |
५ स्थानांग सूत्र ६ उत्तराध्ययन १३ वाँ अध्ययन ७ उत्तराध्ययन १३ वाँ अध्ययन
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