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________________ नव सृजन की प्रक्रिया का अनिवार्य अंग है, परिवर्तन वृक्ष का सौंदर्य उसके अपने मूल पर आधारित है । वृक्ष का मूल ज्यों-का-त्यों कायम रहता है, प्रतिवर्ष केवल पत्ते, फूल और फल बदलते रहते हैं । पतझर का समय जब आता है, हवा के एक तेज झोंके के साथ सैंकडों ही पत्ते टूट कर नीचे आ गिरते हैं । परन्तु वृक्ष अपने संचित वैभव को जाता हुआ देख कर रोता नहीं है, हाय हाय नहीं करता है । अपने हरे-भरे तन को ढूंठ-सा देखकर भी वृक्ष आकुल नहीं होता | अगर कोई व्यक्ति वृक्ष के पत्ते नोंचता है, फूल और फल तोड़ता है, तब भी वृक्ष रोता नहीं है । इसलिए नहीं रोता कि वृक्ष का अपना मूल कायम है । जबतक वृक्ष का मूल सचेतन है, उसमें प्राण है, चेतना है, जीवन है, तबतक हजारों नए पत्ते जन्म लेते रहेंगे, हजारों नए फूल खिलते रहेंगे, हजारों ही नए फल मधुरस से भरे झूमते रहेंगे । जबतक सृजनशक्ति का स्रोत मूल में प्रवहमान है, तबतक वृक्ष क्यों रोए, क्यों आँसू बहाए। हर पतझर के बाद वसन्त आता है, आता ही है । वसन्त आया कि वृक्ष फिर हराभरा हो जाता है, पत्र-पुष्प-फल की मोहक श्री से पुनः समृद्ध हो जाता है । रोये वह वृक्ष, जिसमें प्राण नहीं है, चेतना नहीं है, जीवन नहीं है । जो केवल निर्जीव ढूँठ मात्र रह गया है, वह रात के अंधेरे में आने जाने वाले बच्चों को भूत बन कर डराता है । और क्या करता है ! समाज भी एक वृक्ष है । सांस्कृतिक चेतना उसका मूल है, और सभ्यता एवं समृद्धि के रूप में, नियमोपनियमों के रूप में अन्य सब उसके पत्ते हैं, फूल हैं, फल हैं | मूल को नहीं बदलना है, बदलना है पत्तों को, फूलों को, फलों को । पुराने पत्ते, फूल और फल वृक्ष पर लगे नहीं रह सकते, उन्हें एक दिन झडना ही होगा । वृक्ष की शोभा पुराने जीर्ण-शीर्ण सूखे पत्ते से नहीं, नये हरे चमकते पत्तों से है । समाज के नियमोपनियम, कायदे कानून, विधिनिषेधरूप क्रियाकलाप जबतक सजीव रहते हैं, उपयोगी रहतें हैं, तबतक संरक्षणीय हैं वे । उनसे समाज की गरिमा है, श्री है, समृद्धि है, शोभा है । परन्तु महाकाल की यात्रा में जब ये पुराने पड़ जाते हैं, प्राणहीन हो जाते हैं, सड़ गल जाते हैं, तो अपनी उपयोगिता खो बैठते हैं । केवल जड रूढियों और परम्पराओं के सूखे ढूँठ Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001306
Book TitleChintan ke Zarokhese Part 1
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAmarmuni
PublisherTansukhrai Daga Veerayatan
Publication Year1988
Total Pages277
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Discourse
File Size13 MB
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