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अच्छे बढ़िया वस्त्र भिक्षु को नहीं धारण करने चाहिए, क्योंकि वहाँ दरिद्र जनता होने से चोरी का उपद्रव हो सकता है ।
इसी प्रकार एक जाति एक देश में अस्पृश्य समझी जाती है तो वही दूसरे देश में स्पृश्य मानी जाती है । जैनधर्म में जाति सम्बन्धी इस स्पृश्यास्पृश्य व्यवस्था को कोई मान्यता नहीं है | फिर भी परिस्थितिवश समस्या का समाधान करना हो तो इस सम्बन्ध में जो जहाँ का लोकाचार हो, तदनुकूल वहाँ वैसा कर लेना चाहिए । आचार्य कल्प पं. आशाधरजी ने सागर धर्मामृत में कहा है कि जैनों को अपने-अपने देश, क्षेत्र और जाति आदि के सभी लोकाचार मान्य हैं । हाँ, यह अवश्य देख लेना चाहिए कि मूल सम्यक्त्व में कोई हानि न होने पाए, और न स्वीकृत व्रतों में कोई दूषण लगे:
सर्व एव हि जैनानां प्रमाणं लौकिको विधिः । यत्र सम्यक्त्वहानिर्न, यत्र न व्रतदूषणम् ।।
अनेक जैन आचार हैं, जो व्यवहार पक्ष के हैं, उनमें सर्वत्र यही मार्ग अपनाया गया है । परिस्थिति आने पर कुछ जलधाराओं को पैदल पार किया जा सकता है । और गंगा जैसी कुछ विशाल जलधाराओं को नौका की सवारी से पार किया जा सकता है । साधु-साध्वी परस्पर न छुएँ । किन्तु डूबतों को बचाने के लिए या रोगादि में सेवा शुश्रूषा के लिए यह सब कुछ किया जा सकता है । व्यवहार नियमों की साधना में एकान्तिक जैसा कुछ नहीं है । यहाँ परिस्थिति ही एक मुख्य है । परिस्थिति के अनुसार हर नियम के साथ अपवाद है | जितने उत्सर्ग हैं, उतने ही अपवाद हैं 'जावइया उस्सग्गा, तावइया चेव हुंति अक्वाया।' किन्तु इन सब व्यावहारिक परिवर्तनों के मूल में एक बात ध्यान में रखने जैसी है कि साधक का अन्तर्हृदय परिवर्तनों के मूल में एक बात ध्यान में रखने जैसी है कि साधक का अन्तर्हृदय पवित्र है कि नहीं ? अन्तरंग में वीतराग भाव सुरक्षित है कि नहीं ? यदि मन पवित्र है, वीतराग भाव सुरक्षित है, तो सब ठीक है । अन्यथा तो अन्यथा है ही !
जुलै १९७७
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