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अन्तरंग साधना अपरिवर्तित है । उसमें किसी भी प्रकार का परिवर्तन या बदलाव न कभी हुआ है, और न कभी होगा । यह साधना वीतराग भाव की साधना है । अतीत में अनन्त-अनन्त तीर्थंकर एवं आचार्य हो चुके हैं, किन्तु किसी ने यह नहीं कहा कि वीतराग भाव के बिना भी मुक्ति हो सकती है । किसी ने यह नहीं कहा कि क्रोध, मान, माया, लोभ के होते हुए भी कोई बन्धन मुक्त हो सकता है । कभी राग और द्वेष से भी मुक्ति हो सकती है, यह कभी कहा है किसी तीर्थंकर ने, किसी धर्माचार्य ने, या किसी अन्य साधारण साधक ने भी ? नहीं, किसी ने भी कभी ऐसा नहीं कहा है । सब के सब एक स्वर से यही कहते रहे हैं कि एक मात्र वीतराग भाव से ही मुक्ति है । दूसरा कोई इससे विपरीत पथ है ही नहीं । ' नाऽन्यः पन्था विद्यतेऽयनाय' । जब तक वीतराग भाव प्राप्त न हो, तब तक संसार के बन्धन से मुक्ति न कभी मिली है, न कभी मिलेगी । इस प्रकार अन्तरंग साधना में, जिसे मैं अन्तर्यात्रा कहता हूँ, कहीं पर भी, कोई भी मतभेद नहीं है ।
शाश्वत एवं सार्वत्रिक सत्य देश, काल आदि से नहीं बँधता है | यदि उस पर देश, काल आदि का प्रभाव पड़ता है, और उससे कुछ परिवर्तित होता है, तो वह सामयिक एवं दैशिक सत्य है, शाश्वत सत्य नहीं । आदि तीर्थंकर भगवान ऋषभदेव से लेकर अन्तिम तीर्थंकर भगवान महावीर तक अनेक परिवर्तन हुए हैं | बाह्य विधिनिषेधों में, इस बीच कितने ही विधि निषेध बन गए हैं और कितने ही निषेध-विधि, परन्तु अन्तरंग वीतरागभाव की साधना में सर्वत्र एकरूपता है, एकसूत्रता है । वीतरागभाव के पक्ष में सब तीर्थंकरों की एक वाक्यता है, भले वे भारत देश के हों, चाहे वे अन्य किसी देश विशेष के हों; चाहे वे अतीत के हों, भविष्य के हों, या वर्तमान के हो । वीतरागता आत्मलक्षी है, अत: उसमें कब कहाँ, क्या होना चाहिए, और कब कहाँ क्या नहीं होना चाहिए; इस चाहिए और न चाहिए का कभी कोई अर्थ ही नहीं होता | यह चाहिए और न चाहिए, तो समाज से सम्बन्धित होते हैं। क्योंकि समाज का एक निश्चित रूप नहीं होता | वह देश, काल आदि बदलती परिस्थिति के अनुसार परिवर्तित होता रहता है । अत: समाज का सत्य क्या तो दैशिक होगा, या सामाजिक होगा | शाश्वत एवं सार्वत्रिक नहीं ।
वीतरागभाव का पथ ही विलक्षण है । अत: वीतरागता का अहिंसा, सत्य, अस्तेय, ब्रह्मचर्य और अपरिग्रहरूप जो विधि-निषेध की धारणा के रूप में
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