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साधना की दो धाराएँ
साधना के कुछ रूप ऐसे भी हैं, जो बाह्य प्रकृति से सम्बन्धित हैं | बाहर के देश, काल आदि निमित्तों का साधना पर प्रभाव पड़ता है । यह सर्वत्र सत्य है कि साधना एक अन्तरंग अध्यात्म चेतना है । उस पर बाहर की प्रकृति का क्या प्रभाव पड़ सकता है ? यह बात सत्य है । फिर भी साधक जब तक उच्च भूमिकाओं पर नहीं पहुँचता है, तब तक नीचे की भूमिकाओं पर वह बाह्य निमित्तों से यथा प्रसंग प्रभावित हो ही जाता है । इसी हेतु साधक के लिए भोजन, भवन, वसन आदि से सम्बन्धित अनेक नियमोपनियमों की, विधिनिषेधों की व्यवस्था की है ।
साधना अर्थात् धर्मचर्या के दो रूप हैं-एक अन्तरंग और दूसरा बहिरंग। अंतरंग रूप वह है, जिसमें साधक अन्दर में जागृत रहता है, निरन्तर अन्तरात्मा का सम्मार्जन एवं परिमार्जन करता रहता है, काम, क्रोध, घृणा, ईर्ष्या, द्वेष आदि मनोविकारों को क्षीण करता रहता है, और सत्य, अहिंसा, दया, करुणा, क्षमा, सन्तोष आदि सद्गुणों को विकसित करता रहता है | साधना अर्थात् साधकचर्या का यह रूप अन्तरात्मा से सम्बन्धित है, जिसे हम दर्शन की भाषा में अन्तर्यात्रा कहते हैं ।
साधना का दूसरा रूप बहिरंग है । यह अन्तरंग साधना के विकास के लिए, सर्वसाधारण साधकों की दृष्टि से बाहर में की जाने वाली विशिष्ट देश और काल आदि से सम्बन्धित चर्या है, रहन-सहन है | यह साधक की बहिर्यात्रा है । इसका सम्बन्ध बाह्य प्रकृति से है, शरीर आदि से है । इस पर देश, काल आदि निमित्तों का प्रभाव पड़ता है । साधारण साधक इस प्रभाव से सर्वथा मुक्त होने का दावा नहीं कर सकता |
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