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________________ महामन्त्र : संकल्प मानव की सबसे बड़ी अजेय शक्ति उसकी संकल्प शक्ति है । आज तक की अपनी सुदीर्घ जीवन-यात्रा में मानव जाति ने जो प्रगति की है, जो विकास किया है, अपने वनवासी अर्ध पशु जीवन में से निकलकर जो मानवीय सभ्यता, संस्कृति एवं समाज आदि का निर्माण किया है, उसके मूल में उसकी विराट संकल्प शक्ति का ही महत्त्व है | महाश्रमण तीर्थंकर महावीर ने आध्यात्मिक जीवन के विकास का पहला सोपान श्रद्धा को ही बताया है । श्रद्धा अर्थात् आत्म-विश्वास, आत्म-निष्ठा, आत्मानुभूति, अपने 'स्व' में और 'स्व' की शक्ति में अवचिल प्रतीति । एक सूत्र है, अध्यात्मिक-दर्शन का बहुत प्राचीन कि - 'सद्धा परम दुल्लहा' । एक और सूत्र है - 'दसण मूलो धम्मो ।' दर्शन अर्थात् आत्म-दर्शन, अपनी शक्ति का, अपनी योग्यता का, अपने उपादान का दर्शन, अवलोकन, निरीक्षण, परीक्षण | मनुष्य जैसा अपने को देखेगा, सोचेगा, मानेगा, वह वैसा बनेगा । अपने को दीन-हीन, तुच्छ, बेकार, कायर समझेगा, तो निश्चित है, वैसा ही बन जाएगा, आज नहीं तो कल, कल नहीं तो परसों | और यदि अपने को महान, उन्नत, एवं योग्य समझेगा, तो देर सवेर वह वेसा ही आकार ले लेगा । इसी सन्दर्भ के कर्मयोगी कृष्ण ने भी करुक्षेत्र की समरभूमि में हताश, खिन्न अर्जुन को सम्बोधित किया था - 'श्रद्धामयोऽयं पुरुषः, यो यच्छ्रद्धः स एव सः।' मनुष्य श्रद्धामय है, वह श्रद्धा से निर्मित होता है । जो जैसी श्रद्धा, विश्वास, निष्ठा एवं संकल्प रखता है, वह वैसा हो बन जाता है । मनुष्य पतित क्यों है? वह क्यों नहीं बन्धन मुका हो पाता? वह काम, क्रोध, लोभ, मोह, मद, अहंकार, ईर्ष्या, दंभ, प्रमाद, भय या वासना आदि (११७) Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001306
Book TitleChintan ke Zarokhese Part 1
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAmarmuni
PublisherTansukhrai Daga Veerayatan
Publication Year1988
Total Pages277
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Discourse
File Size13 MB
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