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वृक्ष पर लगा फल जब तक कच्चा रहता है, खट्टा और दुःस्वादु बना रहता है । परन्तु सूर्य की तप्त किरणों का स्पर्श पाकर फल जब पकता है, तो कठोर से कोमल हो जाता है, खट्टेसे मधुर तथा सुस्वादु बन जाता है ।
सुवर्ण अग्नि में तप कर, कसौटी पर कसा जाकर, हथौड़े की चोट सहन करके ही चमक पाता है, निखरता है | अपनी शुद्धता को प्रमाणित करने के लिए हर स्वर्ण खण्ड को अग्नि परीक्षा में से गुजरना होता है - 'दग्धं-दग्धं पुनरपि पुनः कांचनं कान्त वर्णम्' ।
चन्दन शिलापट्ट पर घिसा जाता है, रगड़ा जाता है, तभी अपनी सुगन्ध का विस्तार पाता है, अनेक रोगियों की दु:सह पीड़ाओं को दूर कर पाता है - घृष्टं-घृष्टं पुनरपि पुनश्चन्दनं चारुगन्धम्' ।
इक्षु दण्ड पेरा न जाए, तो अपने में बन्द मधुर रस को कैसे बाहर में प्रवाहित करे ? यह पेरने की पीड़ा का ही प्रभाव है, कि ईख, गुड, चीनी, शक्कर, मिश्री, अनेक विध मिष्टान और पेय आदि में रूपान्तरित होती हुई लाखों-करोडों लोगों को अपने माधुर्य का रसास्वादन कराती है, प्रीति भोजों की शान बढ़ाती है - छिन्नं छिन्नं पुनरपि पुनः स्वादुचेवेक्षुदण्डम् ।
- पत्थर पर हथौडा बजता है, छैनी चलती है, अंग-अंग तराशा जाता है, छीला जाता है, तो वह मूर्ति के रूप में देवता बनता है । लाखों के मूल्य से निर्मित विशाल मन्दिर में स्वर्ण सिंहासन पर बैठ कर हजारों भक्तों के द्वारा समर्पित श्रद्धा के बहुमूल्य उपहार पाता है । यदि समय पर यह चोट सहन न कर पाता, तो उस पत्थर का क्या होता? कहीं किसी फर्श पर गड़ा होता या कहीं शौचगृह (पाखाना) में लगा होता |
बहुमूल्य वस्त्र कैंची से काटा जा रहा है, खण्ड किया जा रहा है। बड़ी विचित्र दर्दनाक स्थिति है, यह वस्त्र के लिए | परन्तु वस्त्र जब तक इस दु:खद स्थिति में से न गुजरे, तब तक सम्राटों एवं सुन्दरियों के तन का वह दर्शनीय शृंगार कैसे हो सकता है?
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