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पर्युषण का क्षण होता है | क्योंकि उसके पर्युषण का सम्बन्ध किसी काल विशेष से नहीं, जीवन से होता है ।
गणधर गौतम के शब्दों में उनका युग वक्रता का, साथ ही जड़ता का युग है । जीवन में न सरलता है, न विवेक-बोध है । अत: उसे क्रिया-काण्ड रूप स्थूल बन्धनों में आबद्ध किया गया | लम्बे चौड़े फैले हुए बाल-क्रिया-काण्ड हमारी श्रेष्ठता के प्रतीक नहीं हैं, अपितु हमारी कनिष्टता एवं अज्ञानता के प्रतीक हैं | जेल की चौड़ी और ऊँची मजबूत दीवारें जेल के बन्दियों की उद्दण्डता एवं उच्छृखलता की प्रतीक हैं । साधक तत्काल जागृत न हुआ, उसके लिए दैवसिक एवं रात्रिक प्रतिक्रमण है । अब भी ठीक तरह से न जगा हो, तो पाक्षिक, फिर चातुर्मासिक और अन्ततः पर्युषण का सांवत्सरिक प्रतिक्रमण है । धन्य है वह, जो भूली-बिसरी सब भूलों का सच्चे मन से वर्ष के अन्त में पर्युषण के समय तो प्रतिक्रमण कर लेता है , अन्तर्मन की गन्दगी को धो लेता है । दुर्भाग्य से जो अब भी नहीं जगते हैं, उनका क्या होगा? ऐसे लोग साधु तो क्या, श्रावक भी नहीं हैं, सम्यक्-दृष्टि भी नहीं है। शास्त्र की भाषा के अनुसार इतना लम्बा चलने वाला उग्र कषाय भाव सम्यक्-दर्शन की ज्योति को भी बुझा देता है ।
मैं यहाँ शब्द और शब्दार्थ में रूद प्रतिक्रमण की बात नहीं कर रहा हूँ। मेरा अभिप्राय भाव प्रतिक्रमण से है । प्रतिक्रमण केवल मुख से, मस्तिष्क से नहीं, हृदय से होना चाहिए । पवित्रता की भाव-गंगा हृदय में प्रवाहित होती है। मेरा यह आशय नहीं, कि पाठरूप शब्द प्रतिक्रमण न किया जाए। वह किया जाए, पर, उससे आगे बढ़कर अन्तर्-चेतना की गहराई में भी उतरा जाए ।
एक बात और । यह प्रतिक्रमण एवं पर्युषण सर्वांगीण होना चाहिए, एकांगी नहीं | आज का पर्युषण जीवन के विविध आयामों से हटकर एक मात्र क्षमापर्व के रूप में रूढ़ हो गया है । पर्युषण का ही नहीं, विनय का, नम्रता का, सरलता का, सन्तोष का, उदारता आदि का भी पर्व होना चाहिए । जीवन के आध्यात्मिक सौन्दर्य के लिए सभी सद्गुणों का सम्यक् विकास अपेक्षित है ।
सितम्बर १९७६
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