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तो अवश्य कीजिए। और इन्हें हलका करने का साधन है, सच्चे भाव से किया गया प्रतिक्रमण । जैन परम्परा में तो यह प्रतिक्रमण प्रसिद्ध है ही । बौद्ध, वैदिक, इस्लाम, ईशाई अन्य परम्पराओं में भी अमुक आलोचना, चिन्तना तथा पद्धतियों के रूप में वह परिलक्षित होता है | तन के कब्ज (मलावरोध) को दूर करने के लिए हर पैथी का चिकित्सक दस्तों की दवा देता है । और मन के कब्ज (विकृतिरूप मलावरोध) को दूर करने के लिए हर सद्गुरु किसी न किसी रूप में प्रतिक्रमण की आध्यात्मिक भाव रूप औषधि देता है । इसके सिवाय दूसरी कोई गति नहीं है ।
पर्युषण : अन्तर्दोषों की चिकित्सा
___शब्दार्थ की एवं इतिहास की दृष्टि से पर्युषण का कुछ अर्थ हो, बाहर में। आध्यात्मिक दृष्टि से उसका चिरकाल से एक ही अर्थ है - आत्म-शुद्धि । पर-भाव से हटकर स्वभाव में, आत्मा का आत्म-स्थिति में लीन हो जाना ही पर्युषण है, एकत्र एकान्त वास है । यह पर्युषण जीवन के हर क्षण का पर्युषण है, जो अनादि काल से प्रचलित है । मूल में यह प्रतिक्रमण ही है । हमारी चेतना ने भ्रान्ति के क्षणों में आत्मभाव से बाहर रागद्वेषादि दुर्वृत्तियों के रूप में अपनी मर्यादा का जो अतिक्रमण किया है, उससे वापस लौटकर शुद्ध आत्मभाव में केन्द्रित हो जाना ही प्रतिक्रमण है, और यही पर्युषण है ।
भगवान पार्श्वनाथ के युग में दैवसिक, रात्रिक, पाक्षिक चातुर्मासिक एवं सांवत्सरिक ( वार्षिक ) उक्त पाँच प्रतिक्रमणों में से कोई भी प्रतिक्रमण नहीं होता था । आज की प्रथा के अनुसार सांवत्सरिक प्रतिक्रमण के रूप में जो पर्युषण होता है, वह उस युग में नहीं था। क्योंकि वार्षिक प्रतिक्रमण होता ही नहीं था | उस युग का प्रतिक्रमण था, जब जिस क्षण दोष लगे, कोई विकृति हो, तत्काल उसका परिमार्जन | बात भी ठीक है । हाथ-पैर आदि कोई भी यदि कभी मलमूत्र आदि से गन्दा हो जाए, तो पता लगते ही तत्काल उसे धो लेना चाहिए न ? यह तो नहीं, कि उसकी धुलाई-सफाई को वर्षभर के लम्बे समय पर टाल दिया जाए । तन की धुलाई की अपेक्षा मन की धुलाई तो और अधिक आवश्यक है | वह तो तत्काल ही होनी चाहिए । मन की गन्दगी को वर्षों ढोते रहना, पागलपन नहीं तो और क्या है | अत: जागृत साधक के लिए तत्काल प्रतिक्रमण है, तत्काल पर्युषण है । सच्चे साधक के जीवन का हर क्षण
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