________________
लांछन-असत्य दोषारोपण, 'परपरिवाद आदि अनेक रूपों में प्रवाहित है, यह तीसरा वर्ग । यह साक्षात् अपराध भूमिका का वर्ग है। यह वर्ग किसी भी स्थिति में क्षम्य नहीं है । सामाजिक क्षेत्र में ऐसा व्यक्ति कठोर दण्ड का भागी होता है, और साधना-क्षेत्र में उग्र प्रायश्चित्त का । यहाँ क्षमा का, भूल को भूल जाने का कोई प्रश्न ही नहीं है। यह जीवन की भयंकर विकृति है, विषाक्त फोड़ा है । इस ओर जरा भी असावधान हुए नहीं,कि समग्र जीवन दूषित । स्वंय व्यक्ति का और समाज का हित इसी में है, कि प्रथम तो इस तरह की पाप-मूलक भूलों के प्रति पहले से ही सजग रहा जाए, ताकि कोई भूल होने ही न पाए । यदि कभी कोई हो जाए, तो तत्काल विवेक के प्रकाश में उसका परिमार्जन कर दिया जाए । तन की अपेक्षा मन पर जमी धूल की परतें भयंकर होती हैं । यह जन्म-जन्मान्तर तक दु:संस्कारों के रूप में चलती रहती हैं, अन्दर-अन्दर ही फैलती रहती हैं । तन का कैंसर कितना भयानक होता है? यह तो मन का कैंसर है । इसकी भयानकता की कोई सीमा ही नहीं है ।
आज के विश्व में यह पागलपन क्यों ?
आज का विश्व पागलों से भरता जा रहा है । मानसिक रोगों का इतना फैलाव है, कि कुछ पूछो नहीं । अकेले भारत में ही ६ करोड़ के लगभग व्यक्ति मानसिक दोषों के कारण पागल हैं, भयंकर रूप से पागल। और तीन करोड़ के लगभग छिटपुट पागलपन की स्थिति में हैं, जो कभी भी पागलपन की उग्र स्थिति में पहुँच सकते हैं । उक्त मानसिक रोगियों में अधिक संख्या उन लोगों की है, जो कभी कोई अपराध मूलक, अनैतिक भूल कर बैठें, और उसे अन्दर-ही-अन्दर छिपाते रहे, दबाते रहे । बाहर में हँसते रहे, अन्दर में घुटते रहे। भय की तलवार सिर पर लटकी रही । पाप कब तक दब सकता है । एक-न-एक दिन अपराध खुल कर बोलता है, पाप का घड़ा चौराहे पर फूटता है। फलत: मन की ये दुर्वृत्तियाँ उभर कर एक दिन तन पर भी छा जाती हैं, और पागलपन, सनक आदि के नाना रूपों में अपना जौहर दिखाती हैं । अत: तन और मन दोनों ही के स्वस्थ जीवन के लिए आवश्यक है, कि देर-सवेर उनका परिमार्जन कर दिया जाए । देर तो क्या, सवेर ही अर्थात् तत्कालही इसके लिए आवश्यक है | विष के फोड़े को समय देना ही नहीं चाहिए ।
(१०७)
Jain Education International
For Private & Personal Use Only
www.jainelibrary.org