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________________ ww जैन दर्शन में सप्त भंगीवाद | ५२७ इसको तीसरा माना है। उत्तरकालीन आचार्यों की कृतियों में दोनों क्रमों का उल्लेख मिलता है। प्रथम भंग : स्याद् अस्ति घट : उदाहरण के लिए घटगत सत्ता धर्म के सम्बन्ध में सप्त भंगी घटाई जा रही है। घट के अनन्त धर्मों में धर्म सत्ता है, अस्तित्व है । प्रश्न है कि वह अस्तित्व किस अपेक्षा से है ? घट है, पर वह क्यों है और कैसे है ? इसी का उत्तर प्रथम भंग देता है । पर घट का अस्तित्व स्यात् है, कथं चित् है, स्व-चतुष्टय की अपेक्षा से है। जब हम कहते हैं कि घड़ा है, तब हमारा अभिप्राय यही होता है, कि घड़ा स्वद्रव्य, स्वक्षेत्र, स्वकाल और स्वभाव की दृष्टि से है। यहाँ घट के अस्तित्व की विधि है, अतः यह विधि भंग है । परन्तु यह अस्तित्व की विधि स्व की अपेक्षा है, पर की अपेक्षा से नहीं है। विश्व की प्रत्येक वस्तु का अस्तित्व स्वरूप से ही होता है, रूप से नहीं। " सर्व मस्ति स्वरूपेण, पररूपेण नास्ति च ।" यदि स्वयं से भिन्न अन्य समग्र पर स्वरूपों से भी घट का अस्तित्व हो, तो घट, फिर एक घट ही क्यों रहे, विश्व रूपमय क्यों न बन जाए ? और यदि विश्व रूप बन जाए, तो फिर मात्र अपनी जलहरणादि क्रियाएँ ही घट में क्यों हों, अन्य पटादि की प्रच्छादनादि क्रियाएँ क्यों न हों ? किन्तु कभी ऐसा होता नहीं है। एक बात और है। यदि वस्तुओं में अपने स्वरूप के समान पर स्वरूप की सत्ता भी मानी जाए, तो उनमें स्व- पर विभाग कैसे घटित होगा ? स्व - पर विभाग के अभाव में संकर दोष उपस्थित होता है, जो सब गुड़गोबर एक कर देता है। अतः प्रथम भंग का यह अर्थ होता है कि घट की सत्ता किसी एक अपेक्षा से है, सब अपेक्षाओं से नहीं और वह एक अपेक्षा है, स्व की, स्वचतुष्टय की। द्वितीयभंग : स्याद् नास्ति घट : - यहाँ घट की सत्ता का निषेध पर-द्रव्य, पर क्षेत्र, पर-काल और पर-भाव की अपेक्षा से किया गया है। प्रत्येक पदार्थ विधि रूप होता है, वैसे निषेध रूप भी। अस्तु, घट में घट के अस्तित्व की विधि के साथ घट के अस्तित्व का निषेध- नास्तित्व भी रहा हुआ है । परन्तु वह नास्तित्व अर्थात् सत्ता का निषेध, स्वाभिन्न अनन्त पर की अपेक्षा से है। यदि पर की अपेक्षा के समान स्व की अपेक्षा से भी अस्तित्व का निषेध माना जाए, तो घट निःस्वरूप हो जाए ।३ और यदि निःस्वरूपता स्वीकार करें, तो स्पष्ट ही सर्व-शून्यता का दोष उपस्थित हो जाता है। अतः द्वितीय भंग सूचित करता १. प्रवचनसार ज्ञेयाधिकार, गा. ११५ २. स्वरूपोपादानवत् पररूपोपादाने सर्वथा स्वपर-विभागाभावप्रसंगात्। स चायुक्तः । -तत्त्वार्थ श्लोक वार्तिक १, ६, ५२ ३ . पररूपापोहनवत् स्वरूपापोहने तु निरूपाख्यत्व-प्रसंगात् । - तत्त्वार्थ श्लोक वार्तिक १, ६, ५२ Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001300
Book TitleChintan ki Manobhumi
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAmarmuni
PublisherSanmati Gyan Pith Agra
Publication Year1995
Total Pages561
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Spiritual, & Discourse
File Size10 MB
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