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________________ ५५ जैन-दर्शन में सप्त भंगीवाद सांख्य दर्शन का चरम विकास प्रकृति पुरुष-वाद में हुआ, वेदान्त दर्शन का चिअद्वैत में, बौद्ध दर्शन का विज्ञानवाद में और जैन दर्शन का अनेकान्त एवं स्याद्वाद में। स्याद्वाद जैन दर्शन के विकास की चरम-रेखा है। इसको समझने के पूर्व प्रमाण एवं नय को समझना आवश्यक है, और प्रमाण एवं नय को समझने के लिए सप्त भंगी का समझना आवश्यक ही नहीं, परम आवश्यक है। जहाँ वस्तुगत अनेकान्त के परिबोध के लिए प्रमाण और नय है, वहाँ तत्प्रतिपादक वचन-पद्धति के परिज्ञान के लिए सप्त भंगी है। यहाँ पर मुख्य रूप से सप्त भंगीवाद का विश्लेषण ही अभीष्ट है। अतः प्रमाण और नय की स्वतन्त्र परिचर्चा में न जाकर सप्त भंगी की ही विवेचना करेंगे। सप्त भंगी: प्रश्न उठता है, कि सप्त भंगी क्या है ? उसका प्रयोजन क्या है ? उसका उपयोग क्या है ? विश्व की प्रत्येक वस्तु के स्वरूप-कथन में सात प्रकार के वचनों का प्रयोग किया जा सकता है; इसी को सप्त भंगी कहते हैं। १ वस्तु के यथार्थ परिबोध के लिए जैन दर्शन ने दो उपाय स्वीकार किए हैंप्रमाणर और नय। संसार की किसी भी वस्तु का अधिगम (बोध) करना हो, तो वह बिना प्रमाण और नय के नहीं किया जा सकता। __ अधिगम के दो भेद होते हैं—स्वार्थ और परार्थ ३ । स्वार्थ ज्ञानात्मक होता है, परार्थ शब्दात्मक। भंग का प्रयोग परार्थ (दूसरे को परिबोध कराने के लिए किए जाने वाले शब्दात्मक अधिगम) में किया जाता है, स्वार्थ (अपने आप के लिए होने वाले ज्ञानात्मक अधिगम) में नहीं। उक्त वचन-प्रयोग रूप शब्दात्मक परार्थ अधिगम के भी दो भेद किए जाते हैं-प्रमाण-वाक्य, और नय-वाक्य। उक्त आधार पर ही सप्त भंगी के दो भेद किए हैं-प्रमाण-सप्त भंगी, और नय-सप्त भंगी। प्रमाण-वाक्य को सकलादेश और नय-वाक्य को विकलादेश भी कहा गया है। वस्तुगत अनेक धर्मों के १. सप्तभिः प्रकारै र्वचन-विन्यासः सप्तभङ्गीति गीयते -स्याद्वाद मंजरी, का. २३ टीका प्रमाणनयैरधिगमः -तत्त्वार्थाधिगम सूत्र. १,६ अधिगमो द्विविधः स्वार्थः परार्थश्च, स्वार्थो ज्ञानात्मकः परार्थः शब्दात्मकः। स च प्रमाणात्मको नयात्मकश्च ...."इयमेव प्रमाण-सप्तभंगी च कथ्यते। --सप्तभङ्गीतरंगिणी, पृ. १. अधिगमहेतुः द्विविधः -तत्त्वार्थ राज वार्तिक १,६,४ Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001300
Book TitleChintan ki Manobhumi
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAmarmuni
PublisherSanmati Gyan Pith Agra
Publication Year1995
Total Pages561
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Spiritual, & Discourse
File Size10 MB
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