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विश्वकल्याण का चिरंतन पथ : सेवा का पथ |५२१ सेवा : सच्ची आराधना है:
जैन धर्म ने इन्हीं सूक्ष्म बातों पर विचार किया है और गम्भीर विचार के बाद यह उपदेश दिया है कि सेवा, उपवास आदि तप से भी बढ़कर महान् धर्म है, प्रमुख कर्तव्य है। भगवान महावीर ने कहा है उपवास आदि बहिरंग तप है, और सेवा अन्तरंग तप है। बहिरंग से अन्तरंग श्रेष्ठ है, बन्धन मुक्ति का साक्षात् हेतु अन्तरंग है, बहिरंग नहीं।
सेवा के सम्बन्ध में एक बहुत गम्भीर प्रश्न जैन शास्त्रों में उठाया गया है। गणधर गौतम एक बार भगवान् महावीर से पूछते हैं "प्रभु एक व्यक्ति आपकी सेवा करता है, आपका ही भजन करता है, उसकी साधना के प्रत्येक मोड़ पर आपका ही रूप खड़ा है, आपकी सेवा, दर्शन, भजन, ध्यान के सिवाय उसे जन-सेवा आदि अन्य किसी भी कार्य के लिए अवकाश ही नहीं मिलता है।
दूसरा, एक प्रकार का साधक वह है, जो दीन-दुखियों की सेवा में लगा है, रोगी और वृद्धों की सँभाल करने में ही जुटा है, वह आपकी सेवा-स्मरण और पूजन के लिए अवकाश तक नहीं पाता, रात-दिन जब देखो, बस उसके सामने एक ही काम है—जनसेवा ! तो प्रभु ! इस दोनों में आप किसको धन्यवाद देंगे?"
प्रभु ने कहा "गौतम ! जो वृद्ध, रोगी और पीड़ितों की सेवा करता है, मैं उसे ही धन्यवाद का पात्र मानता हूँ।"१ - गौतम का मन अचकचाया, इस सत्य को कैसे स्वीकार करें? पछा "प्रभु ! यह कैसे हो सकता है, कहाँ आप जैसे महान् करुणावतार की सेवा, दर्शन और स्मरण ! ।
और कहाँ वह संसार का दुःखी, दीन-हीन प्राणी है, जो अपने कृत-कर्मों का फल भोग रहा है, फिर आपकी सेवा से बढ़कर उसकी सेवा महान कैसे हो सकती है? वह धन्य किस दृष्टि से है ? ____भगवान् ने उक्त प्रतिप्रश्न का जो प्रत्युत्तर दिया, वह इतिहास के पृष्ठों पर आज भी महान् ज्योति की तरह जगमगा रहा है। उन्होंने कहा-"गौतम ! समझते हो, भगवान् की उपासना क्या चीज है ? भगवान् की देह की पूजा करना, देह के दर्शन करना मात्र उपासना नहीं है। सच्ची उपासना है उनके आदेश एवं उपदेश का पालन करना। भगवान् की आज्ञा की आराधना करना ही भगवान् की आराधना है। उनके सद्गुणों को, सेवा, करुणा और सहिष्णुता के आदर्शों को जीवन में उतारना, यही सबसे बड़ी सेवा है। आत्माएं सब समान हैं। जैसा चैतन्य एक दीन-दुखी में है, वैसा ही चैतन्य मुझमें है। प्रत्येक चैतन्य दुःख दर्द से घबराता है, सुख चाहता है, इसलिए उस चैतन्य को सुख पहुँचाना, आनन्द और प्रकाश की लौ जगाकर उसे
१. जे गिलाणं पड़ियरई से धन्ने। Jain Education International
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