SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 539
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ ५१८ चिंतन की मनोभूमि रहा है, उसके मूल में क्या है ? वही रागात्मक करुणा। राग है, स्नेह है, पर वह किसका परिणाम है ? आखिर अहिंसा की सामाजिक धारा ही तो उनके अन्तर्जीवन में बह रही है। वही धारा तो उन्हें एक-दूसरे के दायित्वरूप भार को वहन करने में सक्षम बना रही है। माता-पुत्र के जो सम्बन्ध हैं, बहन-भाई के जो बन्धन हैं, वे आखिर क्या हैं ? कोई आकस्मिक तो नहीं है, संयोग तो नहीं है, वस्तुतः जीवन में संयोग जैसी कोई बात ही नहीं होती है ; जो होता है, उसका बीज संस्काररूप में बहुत पुराना, जन्म -जन्मान्तर से चला आता है। ये जो सम्बन्ध हैं, परस्पर ,राग के सम्बन्ध हैं, स्नेह के सम्बन्ध हैं, किन्तु उनमें जो त्याग और बलिदान की भावना चल रही है, सहिष्णुता और समर्पण के जो बीज हैं, कोमलता और करुणा का जो भाव है, वह तो एक तात्त्विक वृत्ति है, अहिंसा की ही एक भावना है, फिर भले ही वह राग का आधार लेकर फूटी हो, स्नेह का सहारा पाकर विकसित हुई हो, कोई अन्तर नहीं। इसलिए जीवन के जो भी सम्बन्ध हैं, वे सब रागात्मक करुणा के आधार पर ही चल सकते हैं। एक-दूसरे के साक्षेप, एक-दूसरे के हितों से चिन्तित, यही तो मनुष्य का सामाजिक स्वरूप है। वैराग्य का सही मार्ग : यह तो कहा जाता है कि सब बन्धन तोड डालो, सब सम्बन्ध झठे हैं, स्वार्थ के हैं, इसमें कुछ सत्य अवश्य है, किन्तु वह सत्य जीवन का निर्माणकारी अंग नहीं है। वैराग्य की यह भावना जीवन को जोड़ती नहीं है, उसको टुकड़े-टुकड़े करके रख देती है। इस भावना ने संसार का लाभ उतना नहीं किया, जितना कि ह्रास किया है। वैराग्य तो चाहिए, पर ऐसा वैराग्य हो कि कौन किसका है, कोई मरे तो मरे हमें क्या ? संसार तो जन्म-मरण का ही नाम है, हम किस-किस की फिकर करें? यह वैराग्य मुर्दा वैराग्य है। मानव को मुर्दा वैराग्य नहीं, जीवित वैराग्य चाहिये। जीवन में विश्वास और आस्था पैदा करने वाला वैराग्य चाहिए। धन, संपत्ति नश्वर है, तो फिर उसका उपयोग किसी दीन-दुखी का दर्द मिटाने के लिए किया जाये ! जीवन जब क्षणिक है, तो फिर उसे किसी सेवा के लिए अर्पण कर दिया जाए, हमारे वैराग्य में यह मोड आए, तब तो वह जीवनदायी है, अन्यथा नहीं। मैं तो यह कहता हूँ कि जीवन में जब तक वैराग्य के अंकुर नहीं फूटेंगे, तब तक मनुष्य अपने बहुमूल्य जीवन को किसी के लिए अर्पित भी तो कैसे करेगा ? अपना प्रेम भी कैसे लुटाएगा? बिना वैराग्य के त्याग और बलिदान की भावना नहीं जगेगी, और तब तक मनुष्य में उदारता का भाव कैसे पैदा होगा। जब तक हमें अपने जीवन का मोह है, वैयक्तिक सुख-भोग की लालसा है, तब तक हम अपने जीवन को, अपनी सुखसुविधाओं को किसी दूसरे जीवन के लिए, धर्म और समाज के लिए, देश और राष्ट्र के लिए बलिदान करने को तैयार नहीं हो सकते। Jain Education International For Private & Personal use only . www.jainelibrary.org
SR No.001300
Book TitleChintan ki Manobhumi
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAmarmuni
PublisherSanmati Gyan Pith Agra
Publication Year1995
Total Pages561
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Spiritual, & Discourse
File Size10 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy