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५१६ चिंतन की मनोभूमि को अपने सुख-भोग के लिए इस्तेमाल कर सकता है, उन पर नियन्त्रण कर सकता है, और जीवन की सुख-सुविधाओं को प्राप्त कर सकता है। - किन्तु, इसके विपरीत भी स्थिति हो सकती है। यदि, मानव विकास की ओर नहीं बढ़ कर विनाश की ओर मुड़ जाता है, तो उसका भयंकर से भयंकर पतन भी हो सकता है। पशुयोनि एवं नरक जीवन की घोर यंत्रणाएँ भी उसे भोगनी पड़ सकती हैं। इस प्रकार से वह दीन, हीन दुःखी और दलित हो सकता है।
मुझे इस प्रसंग पर एक बात याद आ रही है। एकबार जोधपुर के राजा मान सिंह जी एकदिन किले को ऊँची बुर्ज पर बैठे थे, पास में राज पुरोहित भी थे। दोनों दूरदूर तक के दृश्य निहार रहे थे। राजा ने नीचे देखा तो बहुत ही भयानक अन्धगर्त की तरह तलहटी दीखने लगी। राजा ने मजाक में पूछा पुरोहित जी ! अगर मैं यहाँ से गिर जाऊँ तो मेरा धमाका कितनी दूर तक सुनाई देगा, और यदि आप गिर जाएँ तो आपका धमाका कितनी दूर जाएगा?
पुरोहित ने हाथ जोड़कर कहा-महाराज ! भगवान् न करें, ऐसा कभी हो। किन्तु, बात यह है कि यदि मैं गिरूँ तो मेरा धमाका क्या होगा ! ज्यादा से ज्यादा मेरी हवेली तक सुनाई देगा। बाल-बच्चे अनाथ हो जाएँगे बस, वहाँ तक ही रोना-चीखना
और शोरगुल हो पाएगा, आगे कुछ नहीं। परन्तु यदि आप गिर गए, तो उसका धमाका तो पूरे देश में सुनाई देगा। रियासत अनाथ हो जाएगी, देश भर में शोक और दुःख छा जाएगा।
इस दृष्टान्त से यह स्पष्ट होता है कि मनुष्य जितनी ऊँचाई पर चढ़ता है, उसकी गिरावट उतनी ही भयंकर होती है। यदि ऊपर ही ऊपर चढ़ता जाता है, तो परम पवित्र स्थिति में, जिसे हम मोक्ष कहते हैं, उसके द्वार तक पहुंच जाता है और यदि गिरना शुरू होता है, तो गिरता-गिरता पतित से पतित दशा में पहुंच जाता है, घोरातिघोर सातवीं नरक तक भी चला जाता है।
मनुष्य का जीवन एक क्षुद्र कुआँ या तलैया नहीं है, वह एक महासागर की तरह विशाल और व्यापक है। मनुष्य समाज में अकेला नहीं है, परिवार उसके साथ है, समाज से उसका सम्बन्ध है, देश का वह एक नागरिक हैं, और इस पूरी मानव सृष्टि का वह एक सदस्य है। उसकी हलचल का, क्रिया-प्रतिक्रिया का असर सिर्फ उसके जीवन में ही नहीं, पूरी मानव जाति और समूचे प्राणिजगत् पर होता है। इसलिए उसका जीवन व्यष्टिगत नहीं, बल्कि समष्टिगत है।
जितने भी शास्त्र हैं-चाहे वे महावीर स्वामी के कहे हुए आगम हैं, या बुद्ध के कहे हुए पिटक हैं, या वेद-उपनिषद्, कुरान या बाईबिल हैं, आखिर वे किसके लिए हैं ? क्या पशु-पक्षियों को उपदेश सुनाने के लिए हैं ? क्या कीड़े-मकोड़ों को सबोध देने के लिए हैं ? नरक के जीवों के लिए भी तो वे नहीं हैं, वे बेचारे रातदिन यातनाओं से तड़प रहे हैं, हाहाकार कर रहे हैं और स्वर्ग के देवों के लिए भी
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