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५१४] चिंतन की मनोभूमि
। जहाँ पर दया और करुणा का, पवित्र मानवता का इतना उच्च विकास हुआ है, वहाँ मानव आपने ही स्वार्थ और इच्छाओं का दास बना हुआ है। अपने स्वार्थ के लिए दूसरों के प्राणों से खेल रहा है। जब तक ये वासना और विकार के बंधन नहीं टूटते, स्वार्थ की बेड़ियाँ नहीं टूटती, तब तक मनुष्य अपने आप में कैद रहेगा और अपने ही क्षुद्र घेरे में, पिंजड़े में बन्द पशु की तरह घूमता रहेगा। संसार का क्या, अपना ही भला नहीं कर सकेगा।
जब मानव-मानव के मन में यह भावना घर कर जाएगी कि "हम सभी एक ही प्रभु के बेटे हैं, सबके अन्दर एक ही प्रभु विराजित है, अतः हम सभी भाई-भाई हैं" तब तक किसी बन्धुभाव-स्थापना की कल्पना करना मात्र कल्पना होकर ही रहेगी। चिंतन एवं विचार की यही एक स्वस्थ, सही एवं सुगम पीठिका है, जहाँ पर खड़ा होकर मानव-मन के अन्दर वसुधैव कुटुम्बम् की विराट् भावना का उदय हो सकता है। विश्व-कल्याण एवं विश्व-शांति की, मानव की अन्तरंग चाहना तभी पूरी हो सकती है, अन्यथा नहीं।
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