SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 523
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ - ५०२ चिंतन की मनोभूमि - भगवान् महावीर के ये वचन कि-'देवता भी भारत जैसे आर्य देश में जन्म लेने के लिए तरसते हैं' जब स्मृति में आते हैं, तो सोचता हूँ, ये जो बातें कही गई हैं, मात्र आलंकारिक नहीं हैं, कवि की कल्पनाजन्य उड़ानें नहीं हैं, बल्कि दार्शनिकों और चिन्तकों की साक्षात् अनुभूति का स्पष्ट उद्घोष है। इतिहास के उन पष्ठों को उलटते ही एक विराट जीवन-दर्शन हमारे सामने आ जाता है। त्याग, स्नेह और सद्भाव की वह सुन्दर तसवीर खिंच जाती है, जिसके प्रत्येक रंग में एक आदर्श प्रेरणा और विराटता की मोहक छटा भरी हुई है। त्याग और सेवा की अखण्ड ज्योति जलती हुई प्रतीत होती है। रामायण में राम का जो चरित्र प्रस्तुत किया गया है, वह भारत की आध्यात्मिक और नैतिक चेतना का सच्चा प्रतिबिम्ब है। राम को जब अभिषेक की सूचना मिलती है, तो उनके चेहरे पर कोई उल्लास नहीं चमकता है और न वनवास की खबर मिलने पर कोई शिकन पड़ती है। "प्रसन्नतां या न गताऽभिषेकतः, तथा न मम्ले वनवासदुःखतः।" . राम की यह कितनी ऊँची स्थितप्रज्ञता है, कितनी महानता है कि जिसके सामने राज्यसिंहासन का न्यायप्राप्त अधिकार भी कोई महत्त्व नहीं रखता। जिसके लिए जीवन की भौतिक सुख-सुविधा से भी अधिक मूल्यवान है पिता की आज्ञा, विमाता की आत्मतुष्टि ! यह आदर्श एक व्यक्तिविशेष का ही गुण नहीं, बल्कि समूचे भारतीय जीवन-पट पर छाया हुआ है। राम तो राम हैं ही, किन्तु लक्ष्मण भी कुछ कम नहीं हैं। लक्ष्मण जब राम के वनवास की सूचना पाते हैं, तो वे उसी क्षण महल से निकल पड़ते हैं। नवोढा पत्नी का स्नेह भी उन्हें रोक नहीं सका, राजमहलों का वैभव और सुख राम के साथ वन में जाने के निश्चय को बदल नहीं सका। वे माता सुमित्रा के पास आकर राम के साथ वन में जाने की अनुमति मांगते हैं और माता का भी कितना विराट् हृदय है जो अपने प्रिय पुत्र को वन-वन में भटकने से रोकती नहीं, अपितु कहती है—राम के साथ वनवास की तैयारी करने में तुमने इतना विलम्ब क्यों किया? "रामं दशरथं विद्धि, मां विद्धि जनकात्मजाम्, अयोध्या विपिनं विद्धि, गच्छ पुत्र! यथासुखम्।" हे वत्स! राम को पिता दशरथ की तरह मानना, सीता को मेरे समान समझना और वन को अयोध्या मानना। राम के साथ वन में जा, देख राम की छाया से भी कभी दूर मत होना। यह भारतीय जीवन का आदर्श है, जो प्रत्येक भारतीय आत्मा में छलकता हुआ दिखाई देता है। जहाँ अधिकारों को ठुकराया जाता है, स्नेह और ममता के Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001300
Book TitleChintan ki Manobhumi
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAmarmuni
PublisherSanmati Gyan Pith Agra
Publication Year1995
Total Pages561
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Spiritual, & Discourse
File Size10 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy