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वर्तमान युग की ज्वलंत माँग : समानता ४९५ भी अंकित हैं, जिनसे ज्ञात होता है कि मनुष्य के अन्दर जाति, वंश, धर्म और भाषा का एक भयंकर अहंकार जन्म ले रहा था, ऐसा अहंकार जो संसार में अपनी श्रेष्ठता स्थापित करने के लिए दूसरों की श्रेष्ठता, प्रतिष्ठा और सम्मान को खण्ड-खण्ड करने पर तुल गया था। दूसरों की प्रतिष्ठा का महत्त्व गिरा कर प्रतिष्ठा एवं श्रेष्ठता के महल, उन खण्डहरों पर खड़ा करना चाहता था। उन्होंने मनुष्य के सम्मान का, उसकी आत्मिक पवित्रता का और आत्मा में छिपी दिव्य ज्योति का अपमान किया, उसकी अवगणना की और उसे नीचे गिराने एवं लुप्त करने की अनेक चेष्टाएँ कीं। उन्होंने चरित्र एवं सदाचार का मूल्य जाति और वंश के सामने गिरा दिया। इस प्रकार आध्यात्मवाद का ढिंढोरा पीटकर भी वे भौतिकवादी बन रहे थे। भगवान् महावीर ने यह स्थिति देखी, तो उनके अन्दर क्रान्ति की लहर लहरा उठी। उनके क्रान्तःस्फूर्तस्वर गूंज उठे
"कम्मुणा बंभणो होई, कम्मुणा होई खत्तियो।
बइसो कम्मुणा होइ, सुदो हवइ कम्मणा॥" श्रेष्ठता और पवित्रता का आधार जाति नहीं है, बल्कि मनुष्य का अपना कर्म है, अपना आचरण है। कर्म से ही व्यक्ति ब्राह्मण होता है और कर्म से ही क्षत्रिय । वैश्य और शूद्र भी कर्म के आधार पर ही होता है। संसार में कर्म की प्रधानता है। समाज के वर्ण और आश्रम कर्म के आधार पर ही विभक्त हैं। इसमें जाति कोई कारण नहीं है। मनुष्य की तेजस्विता और पवित्रता उसके तप और सदाचार पर टिकी हुई है न कि जाति पर ? "न दीसई जाइविसेस कोई" जाति का कोई कारण नहीं दीख रहा है। मनुष्य कर्म के द्वारा ऊँचा होता है, जीवन की ऊँचाइयों को नापता है और कर्म के द्वारा ही नीचे गिरता है, पतित होता है। इस प्रकार हम देखते हैं कि इस युग में मानव के मन में जातिवाद और वर्गवाद का जो एक काँटों का घेरा खड़ा हो गया था, उसे जैन धर्म ने तोड़ने की कोशिश की, मनुष्य-मनुष्य और आत्मा-आत्मा के बीच समता एवं समरसता का भाव प्रतिष्ठित करने का प्रबल प्रयत्न किया । प्रत्येक आत्मा समान है :
जैन धर्म ने विश्व को यह सन्देश दिया है कि 'तुम यह भावना हवा में विलीन कर दो-कोई व्यक्ति जाति से नीचा है या ऊँचा है, बल्कि यह सोचो कि उसकी आत्मा कैसी है ? प्रश्न जाति का नहीं, आत्मा का करो। आत्मा की दृष्टि से वह शुद्ध और पवित्र है या नहीं, इसी प्रश्न पर विचार करो।
पूर्वाचार्यों ने विश्व की आत्माओं को समत्व दृष्टि देते हुए कहा है कि संसार की समस्त आत्माओं को हम दो दृष्टियों से देखते हैं—एक द्रव्य दृष्टि से और दूसरी पर्याय दृष्टि से। जब हम बाहर की दृष्टि से देखते हैं, पर्याय की दृष्टि से विचार करते हैं, तो संसार की समस्त आत्माएँ अशुद्ध मालूम पड़ती हैं। चाहे वह ब्राह्मण की आत्मा हो अथवा शूद्र की आत्मा, यहाँ तक कि तीर्थङ्कर की ही आत्मा क्यों न हो,
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