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________________ वर्तमान युग की ज्वलंत माँग : समानता |४९३ नहीं उलझता है, उसकी दृष्टि में तेज होता है, अतः वह सूक्ष्म से सूक्ष्म स्वरूप को ग्रहण करता है, स्थूल पर उसकी दृष्टि नहीं अटकती। वह सूक्ष्म तत्व को पहचानता है और उसी का सम्मान करता है। भगवान् महावीर के, जो प्राचीनतम भाषा में उपदेश प्राप्त होते हैं, वे बहुतकुछ आज भी आचारांग में उपलब्ध हैं। भाषा और शैली की दृष्टि से वह सब आगमों में प्राचीन है और महावीर युग के अधिक निकट प्रतीत होता है। उसमें एक स्थान पर कहा गया है कि "जहा पुणस्स कत्थति, तहा तुच्छस्स कत्थति, जहा तुच्छस्स कत्थति, तहा पुण्णस्स कत्थति।" तुम्हारे सामने यदि कोई सम्राट् आता है, जिसके पीछे लाखों-करोड़ों सेवकों का दल खड़ा है, धन-वैभव का अम्बार लगा है, स्वर्ण-सिंहासन और शासन-शक्ति उसके पीछे है, किन्तु यदि उसे उपदेश देने का प्रसंग आता है, तो उसके धन और शक्ति पर दृष्टि मत डालो, उसके सोने के महलों की तरफ नजर तक न उठाओ, बल्कि उसे एक भव्य आत्मा समझकर उपदेश करो और, तुम यह देखो कि उसकी सुप्त आत्मा जाग्रत हो, उसमें विवेक की ज्योति प्रज्ज्वलित हो, बस यही ध्येय रखकर उपदेश करो और निर्भीक होकर करो।" "और यदि तुम्हारे समक्ष कोई दरिद्र भिखारी गली-कूचों में ठोकरें खाने वाला, श्वपाक या अन्त्यज चाण्डाल, जो संसार की नजरों में नीच कहा जाता है, वह भी आ जाए तो, जिस प्रकार से तथा जिस भाव से तुमने सम्राट को उपदेश दिया है, उसी प्रकार से और उसी भाव से उस तुच्छ और साधारण श्रेणी के व्यक्ति को भी देखो, उसके बाहरी रूप और जाति पर मत उलझो। यह देखो कि वह भी एक भव्य आत्मा है और उसकी आत्मा को जागृति का सन्देश देना हमारा धर्म है।" आप देखेंगे कि जैन धर्म का स्वर कितनी ऊँचाई तक पहुंच गया है। साधारण जनता जिस प्रकार एक सम्राट और एक श्रेष्ठी के प्रति सम्मान और सभ्य भाषा का प्रयोग करती है, एक कंगाल-भिखारी और एक अन्त्यज के प्रति भी जैन धर्म उसी भाषा और उसी सभ्यता का पालन करने की बात कहता है। जितनी दृढ़ता और निर्भयता मन में होगी, सत्य का स्वर भी उतना ही स्पष्ट एवं मुखर होगा। अतः भिखारी और दरिद्र के सामने तुम जितने निर्भय और स्पष्टवादी होकर सत्य को प्रकट करते हो, उतने ही निर्भय और दृढ़ बनकर एक सम्राट को भी सत्य का सन्देश सुनाओ। तुम्हारा सत्य और सुदृढ़ सत्य स्वर्ण की चमक के सामने अपनी तेजस्विता कम न होने दे, सोने के ढक्कन से उसका मुंह बन्द न हो जाए जैसा कि ईशोपनिषद् में कहा गया है-"हिरण्य पयेन पात्रेण सत्यस्य विहितं मुखं" अर्थात् "सोने के पात्र से सत्य का मुंह ढंका हुआ है।" सम्राट् और तुम्हारे बीच में सम्राट के धन और वैभव, शक्ति और साम्राज्य का विचार खड़ा मत होने दो और न दरिद्र और तुम्हारे Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001300
Book TitleChintan ki Manobhumi
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAmarmuni
PublisherSanmati Gyan Pith Agra
Publication Year1995
Total Pages561
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Spiritual, & Discourse
File Size10 MB
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