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________________ ब्रह्मचर्य : सिद्धान्त एवं साधना ३६७) भयंकर युद्ध में, मार पराजित हुआ और बुद्ध विजेता बने। बौद्ध संस्कृति में यह बतलाया गया है कि जब तक साधक अपने मन के मार पर विजय प्राप्त नहीं कर लेता है, तब तक वह बुद्ध बनने के योग्य नहीं है, बुद्ध बनने के लिए मार अर्थात् काम पर विजय प्राप्त करना आवश्यक है। श्रमण-संस्कृति के ज्योतिर्धर इतिहास में तो एक नहीं, अनेक हृदयस्पर्शी जीवन-गाथाओं का अंकन किया गया है, जिनमें ब्रह्मचर्य की साधना के सम्बन्ध में पर्याप्त प्रकाश डाला गया है। मनुष्य जीवन के लिए प्रेरणाप्रद एवं दिशा-दर्शक रूपक आख्यानों से ब्रह्मचर्य की साधना करने वाले साधकों के लिए पवित्र प्रेरणा और बल प्राप्त होता है। मूल आगमों में 'राजीमती' और 'रथनेमि' का वर्णन आज भी उपलब्ध है। रथनेमि, जो अपने युग का कठोर साधक था, रैवताचल की गुफा के एकान्त स्थान में राजीमती के अद्भुत सौंदर्य को देखकर मुग्ध हो जाता है, वह अपनी साधना को भूल जाता है और वासना का दास बनकर राजीमती से प्रणय की याचना करने लगता है। परन्तु उस ज्योतिर्मयी नारी ने उसकी इस संयम-भ्रष्टता की भर्त्सना की और कहा कि कोई भी साधक अपनी साधना में तब तक सफल नहीं हो सकता, जब तक कि वह अपने मन के विकल्पों को न जीत ले। रूप को देखकर भी जिसके मन में रूप के प्रति आसक्ति उत्पन्न न हो, वह वस्तुत: सच्चा साधक है। काम और वासना पर बिना विजय प्राप्त किए, कोई भी अपनी साधना के अभीष्ट फल को अधिगत नहीं कर सकता और तो क्या, भ्रष्ट जीवन की अपेक्षा तो मरण ही श्रेयस्कर है। राजीमती के दिव्य उपदेश को सुनकर रथनेमि पुनः संयम में स्थिर हो गया। आचार्य हेमचन्द्र ने अपने 'त्रिषष्टिशलाका पुरुषचरित' में एक महान् साधक के जीवन का बड़ा ही सुन्दर एवं भव्य चित्र अंकित किया है। वे महान् साधक थे 'स्थूलभद्र' जिन्होंने अपने जीवन की ज्योति से ब्रह्मचर्य की साधना को सदा के लिए ज्योतिर्मय बना दिया। दो हजार वर्ष जितना लम्बा एवं दीर्घ समय व्यतीत हो जाने पर भी आज तक के साधक, ब्रह्मचर्य व्रत के अमर साधक स्थूलभद्र को नहीं भूल सके हैं। स्थूलभद्र के जीवन के सम्बन्ध में आचार्य हेमचन्द्र ने लिखा है कि वे योगियों में श्रेष्ठ योगी. ध्यानियों में श्रेष्ठ ध्यानी और तपस्वियों में श्रेष्ठ तपस्वी थे। स्थूलभद्र की इस यशोमाथा को सुनने के बाद सुनने वाले के दिमाग में यह प्रश्न उठ सकता है कि आखिर वह क्या साधना थी? कैसे की गई थी? और कहाँ की गई थी? उन्होंने इस बात के लिए दृढ़ शब्दों में कहा था कि "मेरी साधना में जो एक विघ्न था, वह भी भगवान् की इच्छा से स्वतः ही दूर हो गया। जब मैं एक बार बन्धन-मुक्त हो गया हूँ, तब फिर दुबारा बन्धन में क्यों फसँ?" निश्चय ही उनका जीवन सरस, शान्त, शीतल एवं प्रकाशमय था। उनके जीवन के इस संयम के कारण ही, उनकी धारणाशक्ति अपूर्व बन सकी थी। किसी भी शास्त्र में उनकी बुद्धि रुकती नहीं थी। यह बौद्धिक बल उन्हें ब्रह्मचर्य से प्राप्त हुआ था। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001300
Book TitleChintan ki Manobhumi
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAmarmuni
PublisherSanmati Gyan Pith Agra
Publication Year1995
Total Pages561
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Spiritual, & Discourse
File Size10 MB
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