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हमारे जीवन में सत्य का बड़ा महत्त्व है, लेकिन साधारण बोल-चाल की प्रचलित भाषा से यदि हम सत्य का प्रकाश ग्रहण करना चाहें, तो सत्य का महान् प्रकाश हमें नहीं मिलेगा । सत्य का दिव्य प्रकाश प्राप्त करने के लिए तो हमें अपने अन्तरतम की गहराई में दूर तक झाँकना होगा।
सत्य का विराट् रूप
आप विचार करेंगे, तो पता चलेगा कि जैनधर्म ने सत्य के विराट् रूप को स्वीकारते हुए ईश्वर के अस्तित्व के सम्बन्ध में एक बहुत बड़ी क्रान्ति की है ।
हमारे जो दूसरे साथी हैं, दर्शन हैं, और आसपास जो मत-मतान्तर हैं, उनमें ईश्वर को बहुत महत्त्वपूर्ण स्थान प्राप्त है । वहाँ साधक की सारी साधनाएँ ईश्वर को केन्द्र बनाकर चलती हैं। उनके अनुसार यदि ईश्वर का स्थान नहीं रहा, तो साधना का भी कोई स्थान नहीं रह जाता. किन्तु जैनधर्म ने इस प्रकार ईश्वर को साधना का केन्द्र नहीं माना है ।
सत्य ही भगवान् है :
तो फिर प्रश्न यह है कि जैनधर्म की साधना का केन्द्र क्या है ? इस प्रश्न का उत्तर भगवान् महावीर के शब्दों के अनुसार यह है
"तं सच्चं खु भगवं ।" १
मनुष्य ईश्वर के रूप में एक अलौकिक व्यक्ति के चारों ओर घूम रहा था । उसके ध्यान में ईश्वर एक विराट् व्यक्ति था और उसी की पूजा एवं उपासना में वह अपनी सारी शक्ति और समय व्यय कर रहा था। वह उसी को प्रसन्न करने के लिए कभी गलत और कभी सही रास्ते पर भटका और लाखों धक्के खाता फिरा ! जिस किसी भी विधि से उसको प्रसन्न करना उसके जीवन का प्रधान और एकमात्र लक्ष्य था। इस प्रकार हजारों गलतियाँ साधना के नाम पर मानव समाज में पैदा हो गई थीं। ऐसी स्थिति में भगवान् महावीर आगे आए और उन्होंने एक ही बात बहुत थोड़े-से शब्दों में कहकर समस्त भ्रान्तियाँ दूर कर दीं। भगवान कौन है ? महावीर स्वामी ने बतलाया कि वह भगवान् तो सत्य ही है। सत्य ही आपका भगवान् है। अतएव जो भी साधना कर सकते हो और करना चाहते हो, सत्य को सामने रखकर ही करौ । अर्थात् सत्य होगा तो साधना होगी, अन्यथा कोई भी साधना सम्भव नहीं है।
प्रश्न व्याकरण सूत्र, द्वि० सं०
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