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________________ २७० चिंतन की मनोभूमि साधना की धारा, जो सतत् अखण्ड प्रवाहित होनी चाहिए थी, वह अमुक देश, काल और परम्पराओं से बँधकर अवरुद्ध एवं क्षीण हो गई। जो धर्म जीवन का स्वामी था, वह उसके हाथ का खिलौना मात्र बन गया, घड़ी-दो घड़ी के मनोरंजन की वस्तु बन गया। इस प्रकार धर्म की धारा खण्डित होकर जीवन में रस और आनन्द की लहर पैदा नहीं कर सकी। धर्म की फलश्रुति : .. कुछ लोगों ने धर्म को इस जीवन की ही वस्तु समझा। उन्होंने ऐश्वर्य, भोग और भौतिक आनन्द को ही धर्म के रूप में देखा। सुखवादी दृष्टिकोण को लेकर वे जीवन के क्षेत्र में उतरे और इस लोक की भौतिक सिद्धियों के क्षुद्र घेरे के भीतर ही भीतर घूमते रहे। धर्म की अनन्त सत्ता को उन्होंने क्षुद्र शरीर से बाँध लिया और उसी एकांगी धर्म की चर्या में वे आये दिन परस्पर लड़ने-झगड़ने भी लगे। इस प्रकार धर्म का वास्तविक अन्तरंग रूप उनकी दृष्टि से ओझल होता गया और एक दिन शरीर से श्वास की झंकार के समाप्त होते ही समाप्त हो गया। . कुछ लोग धर्म का सम्बन्ध परलोक से जोड़ते हैं। जिसका अर्थ यह हुआ कि धर्म का प्रतिफल इस जीवन में नहीं, परलोक में है। यहाँ पर यदि तपस्या करोगे, तो आगे स्वर्ग मिलेगा, यहाँ पर दान करोगे तो आगे धन की प्राप्ति होगी। यहाँ पर हम जो भी कुछ धर्माचरण कर रहे हैं, उन सबका फल मरने के बाद परलोक में मिलेगा। यानी दाम पहले दें और माल बाद में। इस प्रकार क्षमा, दया, अहिंसा, त्याग, सेवा परोपकार आदि समग्र साधना का फल वर्तमान जीवन में न मानकर मृत्यु के बाद मान लिया गया। वास्तव में सच्चाई यह है कि धर्म का संस्कार जाग्रत होते ही उसका प्रतिबिम्ब जीवन में झलकना चाहिए। यदि धर्माचारण की फलश्रुति एकान्त परलोक पर छोड़ दी जाती है, तो धर्म की तेजस्विता ही समाप्त हो जाती है। धर्म का दीपक आज यहाँ जलाएँ और उसका प्रकाश परलोक में प्राप्त हो, यह सिद्धान्त उपयुक्त नहीं है। इस प्रकार तो कार्य और कारण का सिद्धान्त ही गलत हो जाएगा। ऐसा नहीं हो सकता कि कारण तो आज हो और उसका कार्य हजारों वर्ष बाद में सम्पन्न हो। इस विषय में भारतीय दर्शनों का एक ही मत है कि कार्य कारण से अलग नहीं रह सकता। कारण वही है, जिसके साथ ही साथ कार्य की उत्पत्ति प्रारम्भ हो जाए। दीपक अब जले और उसका प्रकाश घण्टे-दो घण्टे के बाद हो, ऐसा नहीं होता। जीवन में भाव और अभाव एक ही साथ होते हैं। इधर दीपक जला, उधर तत्काल अन्धकार मिट गया, प्रकाश हो गया। प्रकाश का क्षण और अन्धकार के नाश का क्षण अलग-अलग नहीं होता, चूंकि दोनों एक ही क्रिया के दो पहलू हैं। जीवन में जैसे ही सत्य, अहिंसा और सदाचार का प्रादुर्भाव होता है, असत्य, हिंसा और दुराचार का विनाश भी उसी क्षण हो जाता है। अशुद्धि के मिटते ही शुद्धि की क्रिया सम्पन्न हो जाती है। इस Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001300
Book TitleChintan ki Manobhumi
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAmarmuni
PublisherSanmati Gyan Pith Agra
Publication Year1995
Total Pages561
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Spiritual, & Discourse
File Size10 MB
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