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१४८ चिंतन की मनोभूमि
अन्य वस्तु को ही जान रहा है अथवा वह प्रत्यक्ष और स्मरण रूप दो ज्ञानों का समुच्चय है । 'यह' इस अंश को विषय करने वाला ज्ञान तो प्रत्यक्ष हैं और 'वही' इस . अंश को विषय करने वाला स्मरण है। इस प्रकार वह एक ज्ञान नहीं, बल्कि दो ज्ञान हैं। बौद्ध दार्शनिक प्रत्यभिज्ञान को एक ज्ञान मानने को तैयार नहीं हैं। इसके विपरीत नैयायिक, वैशेषिक और मीमांसक एकत्व - विषयक प्रत्यभिज्ञान को प्रमाण मानते हैं । पर वे उस ज्ञान को स्वतन्त्र एवं परोक्ष प्रमाण न मानकर प्रत्यक्ष प्रमाण स्वीकार करते हैं। जैन दर्शन का कथन है कि प्रत्यभिज्ञान न तो बौद्धों के समान अप्रमाण है और न नैयायिक, वैशेषिक आदि के समान प्रत्यक्ष ही है । किन्तु वह प्रत्यक्ष और स्मृति के अनन्तर उत्पन्न होने वाला तथा अपनी पूर्व तथा उत्तर पर्यायों में रहने वाले एकत्व एवं सादृश्य आदि को विषय करने वाला स्वतन्त्र ही परोक्ष प्रमाण- विशेष हैं प्रत्यक्ष तो मात्र वर्तमान पर्याय को ही विषय करता है और स्मरण अतीत-पर्याय को ग्रहण करता है, परन्तु प्रत्यभिज्ञान एक ऐसा प्रमाण है, जो उभय पर्यायवर्ती एकत्वादि को विषय करने वाला संकलनात्मक ज्ञान है। यदि पूर्वोत्तर पर्यायव्यापी एकत्व का अपलाप किया जाएगा, तो कहीं भी एकत्व का प्रत्यय न होने से एक सन्तान की सिद्धि नहीं हो सकेगी। इस आधार पर यह कहा जा सकता है, कि प्रत्यभिज्ञान का विषय एकत्वादि वास्तविक होने से वह प्रमाण ही है, अप्रमाण नहीं। प्रत्यभिज्ञान के अनेक भेद जैन दर्शन के ग्रन्थों में उपलब्ध होते हैं, जैसे- एकत्व - प्रत्यभिज्ञान, सादृश्य प्रत्यभिज्ञान और वैसादृश्य प्रत्यभिज्ञान आदि । इस प्रकार प्रत्यभिज्ञान को जैन दर्शन में प्रमाण माना है, अप्रमाण नहीं। जहाँ तक उसके भेद और उपभेदों का प्रश्न है, वहाँ कुछ विचार - भेद अवश्य हो सकता है, परन्तु इस विषय में किसी प्रकार का विवाद एवं विचार - भेद नहीं है, कि प्रत्यभिज्ञान एक परोक्ष प्रमाण है।
परोक्ष प्रमाण का तीसरा भेद है— तर्क । साधारणतया विचार-विशेष को तर्क कहा जाता है । चिन्ता, ऊहा, ऊहापोह आदि, इसके पर्यायवाची शब्द हैं। तर्क को प्रायः सभी दार्शनिकों ने स्वीकार किया है। तर्क के प्रामाण्य और अप्रामाण्य के सम्बन्ध में न्याय दर्शन का अभिमत है, कि तर्क न तो प्रत्यक्षादि प्रमाण चतुष्टय के अन्तर्गत कोई प्रमाण है और न प्रमाणान्तर, क्योंकि वह अपरिच्छेदक है, किन्तु परिच्छेद प्रमाणों के विषय का विभाजक होने से वह उनका अनुग्राहक है — सहकारी है । नैयायिक का कथन है, कि प्रमाण से जाना हुआ पदार्थ तर्क के द्वारा परिपुष्ट होता है । प्रमाण जहाँ पदार्थों को जानते हैं, वहाँ तर्क उनका पोषण करके उनकी प्रमाणता को स्थिर करने में सहायता देता है। यही कारण है कि न्याय दर्शन में तर्क को सभी प्रमाणों के सहायक रूप में माना गया है। किन्तु उत्तरकालवर्ती आचार्य उदयन ने और उपाध्याय वर्द्धमान आदि ने विशेषतः अनुमान प्रमाण में ही व्यभिचार-शंका के निवर्तक रूप से तर्क को स्वीकार किया है । व्याप्ति-ज्ञान में भी तर्क को उपयोगी बतलाया गया है। इस प्रकार न्याय दर्शन में तर्क की मान्यता अनेक प्रकार से उपलब्ध
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