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________________ प्रमाणवाद |१४५ प्रामाण्य, अप्रामाण्य दोनों को अवस्थाविशेष में स्वतः और अवस्थाविशेष में परत: माना गया है। इस प्रकार हम देखते हैं, कि प्रमाण के प्रमाणत्व को लेकर, किस प्रकार दार्शनिकों में विचार-भेद एवं मतभेद रहा है। प्रमाण के सम्बन्ध में बहुत-सी बातों पर विचार किया गया है, उनमें एक है, प्रमाण की संख्या का विचार। प्रमाण की संख्या के विषय में भी भारत के दार्शनिक एकमत नहीं हैं। चार्वाक दर्शन केवल एक इन्द्रिय प्रत्यक्ष प्रमाण को ही मानता है। वैशेषिक दर्शन में दो प्रमाण हैं—प्रत्यक्ष, अनुमान। सांख्य दर्शन में तीन प्रमाण हैंप्रत्यक्ष, अनुमान और शब्द। न्याय-दर्शन में चार प्रमाण हैं--प्रत्यक्ष, अनुमान, उपमान और शब्द। प्रभाकर मीमांसा दर्शन में पाँच प्रमाण हैं. प्रत्यक्ष, अनुमान, उपमान, शब्द और अर्थापत्ति। भट्ट मीमांसा दर्शन में छह प्रमाण है-पूर्वोक्त पाँच और छठा अभाव। बौद्ध दर्शन में दो प्रमाण हैं—प्रत्यक्ष और अनुमान। जैन दर्शन में प्रमाणों की संख्या के विषय में तीन मत हैं-कहीं पर चार प्रमाण स्वीकार किए गए हैं, कहीं पर तीन प्रमाण माने गए हैं और कहीं पर दो प्रमाण ही कहे गए हैं। अनुयोगद्वार सूत्र में चार प्रमाणों का उल्लेख है—प्रत्यक्ष, अनुमान, आगम और उपमान। आचार्य सिद्धसेन दिवाकर प्रणीत 'न्यायावतार सूत्र में' तीन प्रमाण हैंप्रत्यक्ष, अनुमान और आगम। आचार्य उमास्वातिकृत 'तत्वार्थ सूत्र' में दो प्रमाण हैंप्रत्यक्ष और परोक्ष। जैन दर्शन के ग्रन्थों में प्रमाण का विभाजन और वर्गीकरण विविध प्रकार से किया गया है। उत्तरकाल के जैन दर्शन के ग्रन्थों में प्रमाण के जो चार और तीन भेदों का वर्णन है, यह स्पष्ट है, कि उन पर न्याय और सांख्य दर्शन का प्रभाव है, किन्तु इसका अर्थ यह नहीं है, कि प्रमाणों के सम्बन्ध में जैनों का अपना कोई मौलिक विचार न हो। जैन-दर्शन के अधिकांश ग्रन्थो मे प्रमाण कदा भेद किए हैंप्रत्यक्ष और परोक्ष। उक्त भेदों में प्रमाण के समग्र भेद समाहित हो जाते हैं। अन्य किसी भी दर्शन में प्रमाण का इस प्रकारं वर्गीकरण और विभाजन नहीं किया गया है। उक्त दो भेदों में तर्क-शास्त्र सम्मत सभी भेद और उपभेदों को समेट लिया गया है। सबसे बड़ा प्रश्न यह है कि जैन दर्शन के अनुसार प्रत्यक्ष और परोक्ष की क्या परिभाषा की गई है ? मुख्य रूप में प्रत्यक्ष का लक्षण करते हुए कहा गया है, कि जो ज्ञान आत्म-मात्र सापेक्ष है उसे प्रत्यक्ष कहते हैं। और जो ज्ञान इन्द्रिय और मन सापेक्ष होता है, उसे परोक्ष कहा गया है। प्रत्यक्ष के भी दो भेद किए गए हैं-सकल प्रत्यक्ष और विकल प्रत्यक्ष। सकल प्रत्यक्ष में केवल ज्ञान को माना गया है और विकल प्रत्यक्ष में अवधि ज्ञान और मनः पर्याय ज्ञान को माना गया है। दार्शनिक जगत में प्रायः सभी ने एक ऐसे प्रत्यक्ष को स्वीकार किया है, जो लौकिक प्रत्यक्ष से भिन्न हो। शास्त्रीय भाषा में उसे अलौकिक प्रत्यक्ष तथा योगिप्रत्यक्ष कहा गया है। कुछ भी हो, यह अवश्य है कि आत्मा में एक अतीन्द्रिय ज्ञान Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001300
Book TitleChintan ki Manobhumi
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAmarmuni
PublisherSanmati Gyan Pith Agra
Publication Year1995
Total Pages561
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Spiritual, & Discourse
File Size10 MB
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