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________________ प्रमाणवाद १४१ निर्विकल्पक ज्ञान को प्रमाण माना गया है। जैन दर्शन में जिसे दर्शनोपयोग कहते हैं— जिसमें केवल वस्तु की सत्तामात्र का ज्ञान होता है- वहीं बौद्धों का निर्विकल्पक ज्ञान है। निर्विकल्पक ज्ञान में 'यह घट है' और 'यह पट है' – इत्यादि वस्तुगत विभिन्न विशेषों का परिज्ञान नहीं होता । इसी कारण निर्विकल्पक ज्ञान को प्रमाण नहीं कहा जा सकता। जब तक वस्तु की विशिष्टता का परिज्ञान नहीं होता, तब तक वस्तु के यथार्थ स्वरूप को समझा नहीं जा सकता। इसी आधार पर कहा गया है, कि बौद्ध दर्शन में अभिमत निर्विकल्पक ज्ञान प्रमाण नहीं है। ज्ञान मात्र प्रमाण नहीं है, जो ज्ञान व्यवसायात्मक होता है, वही प्रमाण-कोटि में आता है। यदि ज्ञान मात्र को ही प्रमाण माना जाए, तब तो विपर्यय, संशय और अनध्यवसाय को भी प्रमाण कहा जाएगा। क्योंकि ये भी ज्ञान तो हैं ही, भले ही विपरीत ही क्यों न हों ? उक्त तीनों के प्रमाणत्व का निषेध करने के लिए प्रमाण को व्यवसायस्वभाव अथवा निश्चयरूप कहा गया है। सीप को चाँदी समझ लेना; और रस्सी को साँप समझ लेना — इस प्रकार के विपरीतैककोटि स्पर्शी मिथ्याज्ञान को जैनदर्शन में विपर्यय कहा जाता है। विपर्यय में वस्तु का एक ही धर्म जान पड़ता है, और वह विपरीत ही होता है। इसी कारण वह मिथ्याज्ञान है, प्रमाण नहीं है। एक ही वस्तु में अनेक कोटियों को स्पर्श करने वाला ज्ञान, संशय है। जैसे अन्धकार में दूरस्थ किसी ठूंठ को देख कर सन्देह होना कि यह स्थाणु है, यह पुरुष है । संशय भी . मिथ्याज्ञान होने से प्रमाण नहीं है। क्योंकि इसमें न तो स्थाणु को सिद्ध करने वाला साधक प्रमाण ही होता है, और न पुरुष का निषेध करने वाला बाधक प्रमाण ही होता है । अतः न इसमें स्थाणुत्व का निश्चय होता है और न पुरुषत्वं का ही । निश्चय का अभाव होने से इसे प्रमाण नहीं कह सकते। मार्ग में गमन करते समय तृण आदि का स्पर्श होने पर 'कुछ है' - इस प्रकार के ज्ञान को अनध्यवसाय कहते हैं। इसमें किसी भी वस्तु का निश्चय नहीं हो पाता है। निश्चय न होने के कारण से ही इसको प्रमाण नहीं कहा जा सकता है। विपर्यय और संशय में भेद यह है, किं विपर्यय में एक अंश की प्रतीति होती है, जबकि संशय में दो या अनेक अंशों की प्रतीति होती है 1 विपर्यय में एक अंश निश्चित होता है—भले ही वह विपरीत ही क्यों न हो। परन्तु संशय में दोनों अंश अनिश्चित होते हैं। संशय और अनध्यवसाय में भेद यह है, कि संशय में यद्यपि विशेष वस्तु का निश्चय नहीं होता, फिर भी उसमें विशेष का स्पर्श तो होता है, परन्तु अनध्यवसाय में तो किसी भी प्रकार के विशेष का स्पर्श ही नहीं होता । विपर्यय, संशय और अनध्यवसाय, ज्ञान होने पर भी प्रमाणकोटि में नहीं आते। क्योंकि ये तीनों सम्यक् ज्ञान नहीं, मिथ्याज्ञान हैं। मिथ्याज्ञान प्रमाण नहीं हो सकता है । प्रमाण का स्वरूप समझाते समय कहा गया था, कि जो ज्ञान स्व-पर का निश्चय करता है, वह प्रमाण है। स्व का अर्थ है— ज्ञान और पर का अर्थ है— ज्ञान से Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001300
Book TitleChintan ki Manobhumi
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAmarmuni
PublisherSanmati Gyan Pith Agra
Publication Year1995
Total Pages561
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Spiritual, & Discourse
File Size10 MB
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