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________________ ज्ञान-मीमांसा १२९ मतिज्ञान के शास्त्रों में मुख्य रूप से चार भेद किए गए हैं – अवग्रह, ईहा, अवाय और धारणा । यद्यपि मतिज्ञान के अन्य भी बहुत से भेद प्रभेद होते हैं, किन्तु मुख्य रूप में मतिज्ञान के इतने ही भेद हैं। मतिज्ञान के उक्त चार भेदों में सबसे पहला भेद है, अवग्रह। अवग्रह के पर्यायवाची रूप में ग्रह, ग्रहण, आलोचन और अवधारण शब्द का प्रयोग भी किया जाता है। अवग्रह का क्या अर्थ है, इस सम्बन्ध में कहा गया है कि इन्द्रिय और पदार्थ का योग्य देशावस्थितरूप सम्बन्ध होने पर नाम आदि की विशेष कल्पना से रहित जो सामान्य रूप ज्ञान है, वह अवग्रह है। इस ज्ञान में यह निश्चय नहीं हो पाता कि किस पदार्थ का ज्ञान हुआ । केवल इतना ही परिज्ञान होता है, कि कुछ है। उक्त ज्ञान में सत्तामात्ररूप सामान्यग्राही दर्शन से अधिक विकसित जो बोध होता है, उसे हम पदार्थ का प्रारंभिक अविशिष्ट विशेषरूप सामान्य बोध कह सकते हैं। अवग्रह के दो भेद होते हैं—व्यञ्जनावग्रह और अर्थावग्रह । पदार्थ और इन्द्रिय का संयोग व्यञ्जनावग्रह है । व्यञ्जनावग्रह के बाद अर्थावग्रह होता है । व्यञ्जनावग्रह को अव्यक्त ज्ञान कहा गया है, यही ज्ञान आगे पुष्ट होकर अर्थावग्रह की कोटि में पहुँच कर कुछ-कुछ व्यक्त हो जाता है। उदाहरण के लिए, कुम्भकार के आवा में से एक ताजा सकोरा निकाल कर यदि कोई उसमें एक-एक बूँद पानी डालता जाए तो क्या स्थिति होती है ? प्रथम जलबिन्दु गरम सकोरे में पड़ते ही सूख जाता है, इसी प्रकार दूसरा एवं तीसरा आदि जल-बिन्दु भी सूखते चले जाते हैं। इस प्रकार धीरेधीरे निरन्तर जल-बिन्दु डालते रहने का परिणाम यह होता है कि फिर उस सकोरे में को शोषण करने की शक्ति नहीं रहती और एक-एक बूँद संचित होकर अंतत: वह सकोरा जल से भर जाता है। प्रथम बिन्दु से लेकर अन्तिम बिन्दु तक जल उस सकोरे में विद्यमान है, किन्तु प्रथम जल-बिन्दु उसमें अव्यक्त रूप में रहने के कारण दृष्टिगोचर नहीं होता, जबकि व्यक्त जल-बिन्दु दृष्टिगोचर हो जाता है। जैसे-जैसे जल की शक्ति बढ़ती गई, वह अभिव्यक्त होता गया । यहाँ पर यह समझना चाहिए कि अव्यक्त स्थिति में जो जल-बिन्दु हैं, उनके समान व्यंजनावग्रह का अव्यक्तज्ञान है, और जो जल-1 -बिन्दु व्यक्त हैं उनके समान अर्थावग्रह व्यक्तज्ञान के तुल्य हैं। यहाँ पर एक प्रश्न यह भी होता है, कि क्या व्यञ्जनावग्रह समग्र इन्द्रियों से हो सकता है अथवा नहीं ? इसके समाधन में कहा गया है, कि चक्षु और मन से व्यञ्जनावग्रह नहीं होता, शेष सभी इन्द्रियों से व्यञ्जनावग्रह होता है। चक्षु और मन . से व्यञ्जनावग्रह इसलिए नहीं होता है, क्योंकि ये दोनों अप्राप्यकारी इन्द्रियाँ हैं । इन्द्रियाँ दो प्रकार की हैं प्राप्यकारी और अप्राप्यकारी प्राप्यकारी उसे कहा जाता है, जिसका पदार्थ के साथ सम्बन्ध हो और जिसका पदार्थ के साथ सम्बन्ध नहीं होता, उसे अप्राप्यकारी कहा जाता है। व्यञ्जनावग्रह के लिए पदार्थ और इन्द्रिय का संयोग अपेक्षित है। परन्तु चक्षु और मन अप्राप्यकारी हैं, अतः इनके साथ पदार्थ का Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001300
Book TitleChintan ki Manobhumi
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAmarmuni
PublisherSanmati Gyan Pith Agra
Publication Year1995
Total Pages561
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Spiritual, & Discourse
File Size10 MB
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