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________________ ज्ञान-मीमांसा १२७ प्रयत्न में मूल मान्यता में किसी भी प्रकार की गड़बड़ नहीं हुई है। आगम-शास्त्र में ज्ञान के सीधे जो पाँच भेद किए गए हैं, उन्हीं को दर्शनशास्त्र में दो भागों में विभाजित कर दिया है—प्रत्यक्ष प्रमाण और परोक्ष-प्रमाण। प्रमाण के इन दो भेदों में ज्ञान के समस्त भेदों का समावेश कर दिया गया है। मतिज्ञान और श्रुतज्ञान को परोक्ष प्रमाण में मांना गया है तथा अवधिज्ञान, मनःपर्यायज्ञान और केवल ज्ञान को प्रत्यक्ष प्रमाण में माना गया है। इसके बाद आगे चलकर ज्ञान-विभाजन की एक अन्य पद्धति भी स्वीकार की गई थी। इस पद्धति को विशुद्ध तर्क पद्धति कहा जाता है। इस तर्कपद्धति के अनुसार सम्यक ज्ञान को प्रमाण कहा जाता है और उसके मल में दो भेद किए गये हैं.- प्रत्यक्ष और परोक्ष। प्रत्यक्ष दो प्रकार का है— मुख्य और सांव्यवहारिक। मुख्य प्रत्यक्ष को अतीन्द्रिय प्रत्यक्ष और सांव्यवहारिक को इन्द्रियानिन्द्रिय प्रत्यक्ष कहा गया है। निश्चय ही इस विभाजन-पद्धति पर तर्क-शास्त्र का प्रभाव स्पष्ट है। ___मैं आपसे कह रहा था कि मूल आगम में ज्ञान के सीधे पाँच भेद स्वीकार किए गये हैं, जिनका कथन मैं पहले कर चुका हूँ। पाँच ज्ञानों में पहला ज्ञान है-मतिज्ञान। . मतिज्ञान का अर्थ है-इन्द्रिय और मन सापेक्ष ज्ञान। जिस ज्ञान में इन्द्रिय और मन की सहायता की अपेक्षा रहती है, उसे यहाँ पर मतिज्ञान कहा गया है। शास्त्र में मतिज्ञान के पर्यायवाची रूप में स्मृति, संज्ञा, चिन्ता और अभिनिबोध शब्दों का प्रयोग भी किया गया है। मैंने अभी आपसे कहा था, कि इन्द्रिय और मन के निमित्त से होने वाला ज्ञान मतिज्ञान होता है। इस प्रकार मतिज्ञान के दो भेद हैं- इन्द्रियजन्यज्ञान और मनोजन्यज्ञान। जिस ज्ञान की उत्पत्ति में मात्र इन्द्रिय निमित्त हो, वह इन्द्रियजन्यज्ञान है और जिस ज्ञान की उत्पत्ति में मात्र मन ही निमित्त हो, वह मनोजन्यज्ञान है। अब यह प्रश्न उठ सकता है, कि इन्द्रिय क्या है और मन क्या है ? जब तक इन्द्रिय और मन के स्वरूप को नहीं समझा जाएगा, तब तक वस्तुतः मतिज्ञान को समझना आसान नहीं है। आत्मा की स्वाभाविक ज्ञान-शक्ति पर कर्म का आवरण होने से सीधा आत्मा से ज्ञान नहीं हो सकता है, अतः उस स्थिति में ज्ञान के लिए किसी माध्यम की आवश्यकता रहती है। ज्ञान का वह माध्यम इन्द्रिय और मन हो सकता है। इन्द्र का अर्थ-आत्मा है, और इन्द्र का अनुमान कराने वाले चिह्न का नाम हैइन्द्रिय। शास्त्र में इन्द्रियों के पांच भेद बताए गए हैं-स्पर्शन, रसन, घ्राण, चक्षु और श्रोत्र। इन पाँच इन्द्रियों के शास्त्रों में दो भेद किए गये हैं-द्रव्येन्द्रिय और भावेन्द्रिय। पुद्गल की रचना का आकार-विशेष द्रव्येन्द्रिय है और आत्मा का ज्ञानात्मक परिणाम भावेन्द्रिय है। इस प्रकार इन्द्रिय के भेद और प्रभेद बहुत से हैं, किन्तु मैं आपके समक्ष उनमें से मुख्य-मुख्य भेदों का ही कथन कर रहा हूँ। पाँच इन्द्रियों के विषय भी पाँच ही हैं। स्पर्शन का विषय स्पर्श, रसनं का विषय रस, घ्राण का विषय गन्ध, चक्षु का विषय रूप और श्रोत्र का विषय शब्द है। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001300
Book TitleChintan ki Manobhumi
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAmarmuni
PublisherSanmati Gyan Pith Agra
Publication Year1995
Total Pages561
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Spiritual, & Discourse
File Size10 MB
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