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ज्ञान-मीमांसा १२५ दार्शनिक परिभाषा में अप्रमाण कहा जाता है। अध्यात्म-शास्त्र में ज्ञान की यथार्थता और अयथार्थता सम्यक् दर्शन.सद्भाव और असद् भाव पर निर्भर रहती है। जिस आत्मा में सम्यक् दर्शन की ज्योति प्रज्ज्वलित है, उस आत्मा का ज्ञान सम्यक् ज्ञान है और जिसमें सम्यक् दर्शन की ज्योति नहीं है, उसका ज्ञान मिथ्या ज्ञान होता है। यही कारण है कि अध्यात्म-शास्त्र में ज्ञान को सम्यक् बनाने वाले सम्यक् दर्शन का कथन ज्ञान से पूर्व किया गया है। अध्यात्म-शास्त्र की दृष्टि में मिथ्या दृष्टि का ज्ञान अज्ञान ही होता है, फिर भले ही वह कितना ही विशाल एवं कितना ही विविध क्यों न हो। मिथ्या दृष्टि आत्मा का बन्धन-मुक्ति पर विश्वास नहीं होता, उसका ज्ञान संसार के पोषण के लिए ही होता है, आदर और सम्मान आदि के लिए ही होता है, जबकि सम्यक् दृष्टि का ज्ञान बन्धन-मुक्ति के लिए होता है, आत्मविशुद्धि के लिए ही उसका उपयोग एवं प्रयोग किया जाता है। अध्यात्म-शास्त्र में सम्यक् आत्म-बोध को ही वस्तुतः सम्यक् ज्ञान कहा जाता है और यह सम्यक् आत्म-बोध तभी सम्भव है जबकि सम्यक् दर्शन की उपलब्धि हो चुकी हो। अतः अध्यात्म-शास्त्र में सम्यक् दर्शन का सहभावी ज्ञान ही सम्यक् ज्ञान कहा जाता है। ज्ञान आत्मा का एक गुण है उसकी दो पर्याय हैं-सम्यक् ज्ञान और मिथ्या ज्ञान । सम्यक् ज्ञान उसकी शुद्ध पर्याय है और मिथ्या ज्ञान उसकी अशुद्ध पर्याय है। सम्यक् दर्शन के सद्भाव और असद्भाव पर ही यह शुद्धता और अशुद्धता निर्भर है।
जैन-दर्शन की दृष्टि से आत्मा और ज्ञान में गुण-गुणी-सम्बन्ध है। गुणी आत्मा है और गुण ज्ञान है। आत्मा ज्ञाता है और संसार के जितने भी पदार्थ हैं, वे सब ज्ञेय हैं। ज्ञाता अपनी जिस शक्ति से ज्ञेय को जानता है, वस्तुतः वही ज्ञान है। जीव का लक्षण करते हुए कहा गया है, कि उपयोग, जीवन का असाधारण लक्षण है। जिसमें उपयोग हो, वह जीव, और जिसमें उपयोग न हो, वह अजीव। प्रश्न यह है कि उपयोग क्या है ? और उसका स्वरूप क्या है ? इस प्रश्न के उत्तर में कहा गया है, कि जीव का बोधरूप व्यापार ही उपयोग है। आत्मा अपनी जिस शक्ति विशेष से पदार्थों को जानता है, आत्मा की उस शक्ति को उपयोग कहा जाता है। शास्त्र में उपयोग के दो भेद हैंसाकार और निराकार। साकार का अर्थ है-ज्ञान और निराकार का अर्थ है-दर्शन। आत्मा का बोधरूप व्यापार जब वस्तु के सामान्य धर्म को गौण करके मुख्य रूप से वस्तु के विशेष धर्म को ग्रहण करता है, तब उसे ज्ञान कहा जाता है और जब आत्मा का बोधरूप व्यापार वस्तु के विशेष धर्म को गौण करके वस्तु के सामान्य धर्म को मुख्य रूप से ग्रहण करता है, तब उसे दर्शन कहा जाता है। मैं आपके सामने ज्ञान के स्वरूप का वर्णन कर रहा था और आपको यह बता रहा था, कि जैन दर्शन में ज्ञान का क्या स्वरूप बतलाया है ? जैन-दर्शन के अनुसार निश्चय नय की दृष्टि से आत्मा और ज्ञान में किसी प्रकार का भेद नहीं है। मैं अपने आपको जानता हूँ, इसका अर्थ यह हुआ कि मैं अपने ज्ञान को भी जानता हूँ। परन्तु.प्रश्न है कि आत्मा अपने ज्ञान को
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