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समन्वय एवं अन्य विचारधाराएँ १०३
२. स्वभाववाद :
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स्वभाववाद का दर्शन भी कुछ कम नहीं है। वह भी अपने समर्थन में बड़े ही पैने तर्क उपस्थित करता है । स्वभाववाद का कहना है कि संसार में जो भी कार्य हो रहे हैं, सब वस्तुओं के अपने स्वभाव के प्रभाव से ही हो रहे हैं। स्वभाव के बिना काल, कर्म, नियति आदि कुछ भी नहीं कर सकते। आम की गुठली में आम का वृक्ष होने का स्वभाव है, इसी कारण माली का पुरुषार्थ सफल होता है, और समय पर वृक्ष तैयार हो जाता है । यदि काल ही सब कुछ कर सकता है, तो क्या काल निबौली से आम का वृक्ष उत्पन्न कर सकता है ? कभी नहीं । स्वभाव का बदलना बड़ा कठिन कार्य है। कठिन क्या, असंभव कार्य है। नीम के वृक्ष को गुड़ और घी से सींचते रहिए, क्या वह मधुर हो सकता है ? दही मथने से ही मक्खन निकलता है, पानी से नहीं; क्योंकि दही में ही मक्खन देने का स्वभाव हैं। अग्नि का स्वभाव उष्णता है, जल का स्वभाव शीतलता है, सूर्य का स्वभाव प्रकाश करना है और तारों का रात में चमकना है। प्रत्येक वस्तु अपने स्वभाव के अनुसार कार्य कर रही है । स्वभाव के समक्ष बेचारे काल आदि क्या कर सकते हैं ?
३. कर्मवाद :
कर्मवाद का दर्शन तो भारतवर्ष में बहुत चिर- प्रसिद्ध दर्शन है। यह एक प्रबल दार्शनिक विचारधारा है। कर्मवाद का कहना है कि काल, स्वभाव, पुरुषार्थ आदि सब नगण्य हैं। संसार में सर्वत्र कर्म का ही एकछत्र साम्राज्य है । देखिए -एक माता के उदर से एक साथ दो बालक जन्म लेते हैं, उनमें एक बुद्धिमान होता है, और दूसरा मूर्ख ! ऊपर का वातावरण रंग-ढंग के एक होने पर भी भला यह भेद क्यों है? मनुष्य के नाते एक समान होने पर भी कर्म के कारण भेद हैं। बड़े-बड़े बुद्धिमान चतुर पुरुष भूखों मरते हैं और व्रज - मूर्ख गद्दी तकियों के सहारे सेठ बनकर आराम करते हैं । एक को माँगने पर भीख भी नहीं मिलती, दूसरा रोज हजारों रुपये खर्च कर डालता है। एक के तन पर कपड़े के नाम पर चिथड़े भी नहीं हैं, और दूसरे के यहाँ कुत्ते भी मखमल के गद्दों पर लेटा करते हैं । यह सब क्या है ? अपने-अपने कर्म हैं। राजा को रंक और रंक को राजा बनाना, कर्म के बाएँ हाथ का खेल है। तभी तो एक विद्वान् ने कहा है-'गहना कर्मणो गतिः ।' अर्थात् कर्म की गति बड़ी गहन है ।
४. पुरुषार्थवाद :
पुरुषार्थवाद का भी संसार में कम महत्त्व नहीं है। यह ठीक है कि लोगों ने पुरुषार्थवाद के दर्शन को अभी तक अच्छी तरह नहीं समझा है और उसने कर्म, स्वभाव तथा काल आदि को ही अधिक महत्त्व दिया है । परन्तु पुरुषार्थवाद का कहना है कि बिना पुरुषार्थ के संसार का एक भी कार्य सफल नहीं हो सकता। संसार में जहाँ कहीं भी जो भी कार्य होता देखा जाता है, उसके मूल में कर्त्ता का अपना पुरुषार्थ ही छिपा होता है । कालवाद कहता है कि समय आने पर ही सब कार्य होता
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