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________________ आस्रव का कारण नहीं बन सकती । वह यथानुकूल संवर और निर्जरा का ही कारण बनेगी। आचार्य पूज्यपाद स्वामीने अपने मौलिक ग्रंथ 'इष्टोपदेश' में श्रावक धर्म की सार्थकता बताने के लिये कहा कि 'अव्रती जीवन बिताकर नरक आदि की अशुभ पर्याय बांधने के स्थान पर, व्रती जीवन अपनाकर देवादि शुभ पर्यायों की भूमिका बनाना अच्छा है। किसी की प्रतीक्षा के लिए धूप में खड़े होकर क्लेश पाने की अपेक्षा छाया में खड़े होकर आराम पा लेना निश्चिंत ही श्रेष्ठ है वरं व्रतैः परं दैवं नाव्रतैर्वत नारकं, छायातपस्थयोर्भेदः प्रतिपालयतोर्महान । इष्टोपदेश/३ एक हिन्दी कविने तो गृहस्थाश्रम को मुनिधर्म की प्रारंभिक पाठशाला ही कह दिया । उन्होंने लिखा कि गृहस्थी का उलझनभरा वातावरण, जहां पग-पग पर स्वार्थों की टकराहट होती है, साधना की पाठशाला ही है। उस निरंतर संघर्षशील वातावरण में जिसने निरुद्विग्न बने रहने और अपनी समता को सुरक्षित रख पाने का अभ्यास नहीं किया, वह तपस्या के लिये वन में जाकर भी कुछ नहीं कर पायेगा। जिन सों घर मांहिं कछू न बनी तिनसों वन मांहिं कहा बहन है । श्रावक साधना के प्रतीक पुरुष गणेश वर्णी -- बीसवीं सदी में अपने आचरण के माध्यम से अणुव्रतों की महनीयता को प्रकाशित करनेवाले साधकों के नाम लिये जायें तो निश्चिंत १३४ તીર્થ-સૌરભ Jain Education International ही उनमें पूज्य १०५ श्री क्षुल्लक गणेशप्रसादजी वर्णी महाराज का नाम बहुत ऊपर होगा । युवावस्था में ही ज्ञान प्रचार के लिये अपना जीवन न्यौछावर कर देने का संकल्प लेने वाले गणेशप्रसादजीने अपनी ३३ वर्ष की अधेड़ आयु तक ब्रह्मचर्य प्रतिमा ग्रहण नहीं की । १९०७ में जब उन्होने सातवीं प्रतिमा के व्रत अंगीकार किये तब उसके पूर्व ही उनका ज्ञानदान यज्ञ प्रारंभ हो चुका था और उसके दो वर्ष पूर्व १९०५ में बनारस में उनके द्वारा स्याद्वाद महाविद्यालय की स्थापना भी हो चुकी थी । १९०७ में सातवी प्रतिमा ग्रहण करने के उपरांत चालीस वर्षों तक पूज्य वर्णीजीने गांवगांव अलख जगाकर विद्या प्रचार के अपने संकल्प को साकार किया। इस बीच उनके द्वारा समाज को नई दिशा मिली और समाज सुधार के अनेक उल्लेखनीय कार्य हुए। वर्णीजीकी विशेषता यह रही कि यह सब करते हुए भी वे एकदम निर्लेप बने रहे. उन्होने संस्थाओं की स्थापना की परंतु संस्थाए उन्हें कभी बांध नहीं पाईं. चालीस वर्षो की इस साधना - यात्रा के बाद, ७३ वर्ष की वृद्धावस्था में ब्र. गणेश वर्णी ने अपने आपको आत्म-कल्याण की साधना में नियोजित करने के लिये क्षुल्लक का पद ग्रहण किया। अपनी संस्थाओं से और अपनी कर्मभूमि से सारे नाते तोड़कर वर्णीजी क्षुल्लक पद पर ही अपने अंत समय सन् १९६१ तक साधना करते रहे. वर्णीजीने कभी मुनिदीक्षा का विचार नहीं किया । उनकी मान्यताथी कि वर्तमान में महाव्रतों का निरतिचार निर्वाह करने के लिये देशकाल बहुत अनुकूल नहीं है । इस दूषित वातावरण में રજતજયંતી વર્ષ : ૨૫ For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001295
Book TitleTirth Saurabh
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAtmanandji Maharaj
PublisherShrimad Rajchandra Sadhna Kendra Koba
Publication Year2000
Total Pages202
LanguageGujarati
ClassificationBook_Gujarati, Devotion, & Articles
File Size6 MB
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