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अध्यात्मज्ञान-प्रवेशिका का अंग है। प्र. ८ : किस प्रकार तप करनेसे आत्माका कल्याण होता
उ. ८ : “जब जब तपश्चर्या की जाय तब तब स्वच्छंदसे नहीं .
करनी, अहंकारसे नहीं करनी, लोगोके लिए नहीं करनी, जीवको जो कुछ भी करना वह स्वच्छंदसे नहीं करना ।
यहाँ तो लोकसंज्ञा (लौकिक दृष्टि) से, ओघसंज्ञासे (समझे बिना), मानकी पुष्टिके लिए, अपनी पूजाके लिए, पदकी महत्ताके लिए (पदका महत्त्व बतानेके लिए) श्रावकादिको अपनी ओर आकृष्ट करनेके लिए या ऐसे ही दूसरे कारणोंसे जप-तपादि, व्याख्यानादि करनेकी प्रवृत्ति बन गई है, उसमें किसी प्रकारका आत्मार्थ नहीं है, अपितु वह आत्मार्थमें प्रतिबन्धरूप है । . कोई भी क्रिया, जप, तप और शास्त्रअध्ययन करके एक ही कार्य सिद्ध करना है, वह यह कि जगतकी विस्मृति करनी और सत्के चरणमें रहना, और यह एक ही लक्ष रखकर प्रवृत्ति करनेसे जीवको स्वंय क्या करना योग्य है, और क्या करना अयोग्य है, यह समझमें आता है, समझमें आता जाता है । इस लक्ष्यको मुख्य किये बिना जप, तप, ध्यान या दान किसीकी भी यथायोग्य सिद्धि नहीं है और तब तक ध्यानादिक नहिवत् कामके
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