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अन्धकार के पार
का लक्ष्य बनाया। एक दिन भगवान महावीर के पास आकर उन्होंने यावज्जीवन मासक्षमण तप करते रहने का अभिग्रह ले लिया। कठोर तपस्या से शरीर जर्जर हो गया, रक्त एवं मांस सूख गया, एक तरह से शरीर नसों व अस्थियों का ढांचामात्र रह गया।
एक बार दमसार ऋषि के मन में विकल्प अंकुरित हुआ-"इतनी कठोर तपस्या करने पर भी मुझे केवलज्ञान क्यों नहीं हो रहा है ? कहीं मेरे साधना-क्रम में भूल तो नहीं है ? मैं भव्य तो हूँ न ?" मन शंकाकुल हुआ, तो वे उस समय चम्पानगरी के बाहर वन - खण्ड में पधारे हुए प्रभु महावीर के समवसरण में पहुंचे । 'वंदामि नमसामि' के बाद प्रश्न पूछा, तो सर्वज्ञानी सर्वदर्शी प्रभु ने कहा---'दमसार । मन को शंकाग्रस्त न करो ! तुम भव्य हो, इसी जन्म में केवलज्ञानी बनोगे । पर, इधर तुम्हारे अन्तर-आत्मा में कषाय-भाव प्रबल है । आत्मा में जब तक कषाय की तपन रहती है, केवलज्ञान का कल्पांकुर अंकुरित नहीं हो सकता। चिन्तन और विवेक को अमोघ जलधारा से कषायानल को प्रशमित करो।"
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दमसार ऋषि ने प्रभु को सभक्ति वन्दना करते हए निवेदन किया--- "प्रभो ! आज्ञा शिरोधार्य है, मैं कषायाग्नि को प्रशमन करने के लिए प्रयत्न करूंगा।"
एक बार मासक्षमण का पारणा था। प्रथम के दो पहर स्वाध्याय एवं ध्यान में गुजार कर तीसरे पहर दमसार ऋषि प्रभु की आज्ञा लेकर पारणा लाने के लिए चम्पानगरी की ओर चले । भर गरमी का महीना। सूर्य की प्रचण्ड किरणें आकाश से सिर पर ज्वाला बरसा रहीं थीं। पैरों के नीचे
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