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दीप से दीप जले
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थी, वह संसार में जाकर सांसारिक सुखों का अनुभव करने के लिए तड़प रहा था। इस बार बारह वर्ष पूरे होते ही उसने आचार्य की अनुमति की प्रतीक्षा नहीं की, समय पूरा होते ही वह चुपचाप संसार की स्वतन्त्र यात्रा के लिए चल पड़ा।
क्षुल्लक मुनि चलता-चलता साकेतपुर पहुंचा। नगर में आते-आते संध्या हो गई थी। नगर के बाहर उद्यान में एक सुन्दर नाटक हो रहा था। सहस्रों मनुष्य तन्मयता के साथ खड़े-खड़े नाटक देख रहे दे। नृत्य और गायन का अद्भुत समा बंधा था । क्षुल्लक मुनि के पाँव वहीं रुक गए। वह भी एक ओर खड़ा होकर नृत्य देखने में लीन हो गया।
आकाश में निर्मल शुभ्र चाँदनी खिल रही थी। शीतल और मन्द पवन बह रही थी। नर्तकी के मधुर-स्वर पायल की झनकारों के साथ दिग्-दिगन्त को मुखरित कर रहे थे। उसके अंगों की लचक, कटाक्षों का उन्माद दर्शकों को अपनी मादकता के वेगवान प्रवाह में बहाये ले जा रहा था। रात के तीन पहर बीतने को आए, पर लोगों को आँखों पर जैसे जादू छाया हुआ था, किसी को पता भी नहीं चला कि इतना लम्बा समय कब और कैसे बीत गया ? | ____ अनवरत नृत्य करते-करते नर्तकी का अंग-प्रत्यंग श्रम से शिथिल हो गया। उसकी आँखें भारी और लाल हो गईं। नींद की हलकी - सी झपकी जैसे आँखों पर उतरने लगी। नृत्य-मंडली की बूढ़ी आका (मुखिया नर्तकी) ने देखा-अरे!
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