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जैन इतिहास की प्रेरक कथाएँ
आज्ञा लो। यदि वे आज्ञा दे दें, तो तुम।" क्षुल्लक कुमार . गुरुनी के पास आया और घर जाने की आज्ञा माँगी।
गुरुनी ने कहा- "पुत्र, पहले बारह वर्ष तक मेरे पास रहकर धर्म • उपदेश सुनो, उसके बाद देखा जाएगा।"
क्षुल्लक गुरुनी की बात को भी न टाल सका । विकारों की उछाल मन से मिटी नहीं थी, पर किसी-न-किसी तरह उसे दबाकर वह बारह वर्ष तक गुरुनी की देख-रेख में अध्ययन करता रहा। बारह वर्ष पूरा होते ही उसने गुरुनी से विदा माँगी। गुरुनी ने कहा-"पुत्र ! तू जा सकता है, किंतु अपने उपाध्याय की आज्ञा ले कर।"
क्षुल्लक उपाध्याय के पास गया, तो उपाध्याय ने भी बारह वर्ष के लिए रोक लिया। मन को मसोस कर क्षुल्लक ने फिर बारह वर्ष बिताए । बारह वर्ष पूरे होने पर उसने उपाध्याय से संसार में जाने की अनुमति मांगी। उपाध्याय ने कहा-"क्षुल्लक ! आचार्य की अनुमति लिए बिना संसार में मत जाओ !"
क्षुल्लक आचार्य के पास आया। आचार्य ने भी उसे बारह वर्ष तक धर्म सुनने के लिए रोक लिया । क्षुल्लक मनही-मन खीझ उठा-"इतने वर्ष बीत गए, धर्म सुनते - सुनते, अब और क्या बाकी रह गया है ?" किन्तु फिर भी वह लज्जावश आचार्य की बात टाल नहीं सका।
क्षुल्लक ने अड़तालीस वर्ष तक अपने मन की इच्छा और भावना को दबाया। अब मानसिक चंचलता असह्य हो रही
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